रानाडे और तिलक : कौन समाजचिंतक, कौन समाजहितैषी

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1977
रानाडे

इतिहास के झरोखे से : भारतीय समाज सुधारकों में राजा राममोहन रॉय के बाद अनेक महान हस्तियों का भी बहुत मत्व का योगदान रहा. इनमें महाराष्ट्र में अपने वक़्त के दिग्गज बुद्धिजीवी महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901) भी एक थे. वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के समकालीन थे. लेकिन रानाडे सिर्फ इतिहास के पन्नों में सिमट गए, लेकिन तिलक तो संसद के सेन्ट्रल हॉल में भी सज गए
रानाडे
लेखिका परिमला वी. राव दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास की शिक्षक हैं. उन्होंने तिलक पर Foundations of Tilak’s Nationalism: Discrimination, Education and Hindutva नाम की क़िताब भी लिखी है. उन्होंने इस लेख में रानाडे और महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप विख्यात बाल गंगाधर तिलक के विचारों और कृत्यों को बिना किसी लाग-लपेट के इस आलेख में प्रस्तुत किया है.  

महाराष्ट्र में अपने वक़्त के दिग्गज बुद्धिजीवी महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901) का कहना था कि भारत जैसे देश में राष्ट्र निर्माण के चार अहम स्तंभ होने चाहिए. इसके लिए किसानों और महिलाओं का सशक्तिकरण ज़रूरी है. हरेक को शिक्षा मिलनी चाहिए और समाज सुधार के क्रांतिकारी क़दम उठाए जाने चाहिए.
रानाडे
1942 में उनकी जयंती मनाते हुए भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि ‘रानाडे में एक स्वाभाविक नेकनीयती थी. उनमें ज़बरदस्त बौद्धिक क्षमता थी. वे ना सिर्फ़ वकील और हाई कोर्ट के जज थे, बल्कि आला दर्जे के अर्थशास्त्री भी थे. वे शीर्ष स्तर के शिक्षा शास्त्री और उसी स्तर के धर्म शास्त्र के ज्ञाता भी थे.’

1880 के बाद एक सीनियर जज के तौर पर रानाडे ना तो कोल्हापुर के महाराजा (1901) की पहलक़दमियों का खुल कर साथ दे सके और ना ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885) को कोई दिशा-निर्देश. और ना ही वो टैक्स छूट के लिए सरकार से सौदेबाज़ी करने के लिए बनी दक्कन सभा (1896) से जुड़ सके.

डेक्कन सभा पेपर्स के अनुसार, उन्होंने अपने घर में ही बैठकें कीं. उनके समर्थक गोपाल कृष्ण गोखले, विष्णु मोरेश्वर भिडे, आरजी भंडारकर, गंगाराम भाऊ मशके और दूसरे अन्य लोगों ने उनके विचारों को आगे बढ़ाया. रानाडे और उनके समर्थकों को बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) के ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा.
रानाडे
1881 में एक पत्रकार के रूप में तिलक का करियर उनके इन तीन विरोधाभासी कामों से शुरू हुआ-

पहला, उन्होंने ब्रिटिश प्रेस (1 मई 1881) में कुछ पुराने लेखों को छपवाकर कार्ल मार्क्स के विचारों से ना सिर्फ परिचय करवाया, बल्कि उनकी तारीफ़ भी की.

दूसरा, उन्होंने कुछ दिन पहले लागू हुए, दक्कन के किसानों की राहत के लिए बने क़ानून की कड़ी आलोचना की. यह कानून ग़रीब किसानों को उन लालची सूदखोरों से बचाने के लिए था जो उनकी बची-खुची संपत्ति भी हड़प जाते थे और कर्ज़ ना चुकाने के जुर्म में उन्हें जेल भिजवा देते थे.

तीसरा, उन्होंने जाति व्यवस्था का बचाव किया. (The Mahratta, 10 July 1881, The Prospects of Hindu Caste)

ज़िंदगी भर ये तीन मुद्दे उनकी विचारधारा के स्तंभ बने रहे. 1884 में महादेव गोविंद रानाडे और कुछ अन्य सुधारवादियों ने मिलकर लड़कियों के लिए पहला हाई स्कूल (हुजूर पागा) खोला.

उस दौरान ‘सहमति का बिल’ (विवाह की उम्र को लेकर) भी आया. तिलक इन दोनों के विरोधी बन कर उभरे.

सूदखोरों को ‘काश्तकारों का भगवान’ कहा तिलक ने  
‘द महरट्टा’ कोई कॉरपोरेट अख़बार नहीं था. 1881 से 1897 तक तिलक इस अख़बार के अकेले मालिक और संपादक रहे. अपने जीवन के अंतिम वक़्त तक वे एनसी केलकर के साथ मिलकर इसका संपादन करते रहे.

किसानों के लिए लाया गया ‘डेक्कन एग्रीकल्चरिस्ट्स रिलीफ बिल’ का ड्राफ़्ट महादेव गोविंद रानाडे और विलियम वेडरबर्न ने तैयार किया था.

1874-79 के बीच पड़े भयंकर अकाल की मार झेल चुके किसानों को राहत देने के लिए यह बिल लाया गया था. उस वक़्त हालात ये थे कि 10 से 20 रुपए का लगान देने वाले किसानों पर सूदखोरों का कर्ज बढ़कर 1000 से 2000 रुपए तक पहुंच गया था.

अकाल और भारी कर्ज के तले दबे किसानों ने सूदखोरों के ख़िलाफ़ बड़ा भारी विद्रोह खड़ा कर दिया. इस आंदोलन का नेतृत्व एक चितपावन ब्राह्मण वासुदेव बलवंत फड़के कर रहे थे. अछूत और आदिवासी उनका साथ दे रहे थे. दौलतिया रामोशी, बाबाजी चम्हार, सखाराम महार और कोंदू मांग जैसे अछूत और आदिवासी नेता फड़के के साथ थे.

लेकिन तिलक ने फड़के की बग़ावत को ‘एक गुमराह शख़्स की कोशिश’ करार दिया. (The Mahratta, 9 October 1881) सरकार ने फड़के को गिरफ़्तार कर लिया. उन पर मुक़दमे चले और वे अदन की एक जेल में भेज दिए गए और 1883 में वहीं उनकी मौत हो गई.

कृषि (शेतकरी) बैंकों का विरोध
आगे किसानों को इस तरह बदहाल ना होना पड़े, इसके लिए रानाडे और वेडरबर्न ने कृषि (शेतकरी) बैंकों की स्थापना का प्रस्ताव रखा. ये बैंक किसानों को बेहद कम ब्याज दर और लचीली भुगतान शर्तों पर क़र्ज़ देने वाले थे.

लेकिन तिलक ने इस क़ानून और प्रस्तावित बैंकों का भी लगातार विरोध किया. उन्होंने सूदखोरों को ‘काश्तकारों का भगवान’ कहा. उन्होंने सरकार से दरख्वास्त करते हुए कहा कि ‘जो लोग सूदखोरों का पैसा नहीं लौटा रहे, उनके लिए जेल भेजने वाले कानून को फिर से लागू किया जाए.’

‘किसानों के बच्चों को शिक्षा, पैसे की बर्बादी’ मानते थे तिलक
तिलक के भारी विरोध की वजह से आख़िरकार सरकार ने 1885 में इन बैंकों को खोलने का फ़ैसला रोक दिया और इस तरह तिलक ने अपनी जीत का पहला स्वाद चखा.

महाराष्ट्र के किसानों के प्रति तिलक का यह रवैया जीवन भर रहा. 1897 के अकाल में गोपाल कृष्ण गोखले और उनकी दक्कन सभा ने सरकार से सफलतापूर्वक बातचीत के बाद किसानों के लिए कुछ सहूलियतें हासिल कर लीं.

गोखले अकाल के दौरान राहत कार्य की मज़दूरी बढ़वाने में सफल रहे थे. साथ ही वे किसानों को 48.2 लाख रुपए की क़र्ज़ माफ़ी दिलवाने और 64.2 लाख रुपए की क़र्ज़ वसूली भी रुकवाने में क़ामयाब रहे.

लेकिन तिलक ने कहा कि दक्कन सभा एक अस्तबल (पिंजरापोल) है. उन्होंने रैयतबाड़ी की ज़मीनों को टैक्स से बाहर रखने का एक अलग आंदोलन ही चला दिया. तिलक ने माँग की कि सूदखोरों की ज़मीन पर लगाए जाने वाले टैक्स पर भी छूट मिले. (The Mahratta, 25 February 1900, Suspension and Remission of Revenue, Editorial)

तिलक का ‘किसान विरोध’ जाति व्यवस्था के उनके समर्थन से जुड़ा था. शिक्षा के अपने एजेंडे के तहत वे लगातार जाति-व्यवस्था का बचाव करते रहे. तिलक का कहना था कि ‘कुनबियों (किसानों) के बच्चों को शिक्षा देना बेकार है, पढ़ना-लिखना सीखना और गणित, भूगोल की जानकारी का उनकी व्यावहारिक ज़िंदगी से कोई लेना-देना नहीं है. पढ़ाई-लिखाई उन्हें फ़ायदा नहीं, नुक़सान ही पहुँचाएगी.’

उन्होंने कहा, “ग़ैर-ब्राह्मणों को तो बढ़ईगिरी, लुहार, राज मिस्त्री के काम और दर्जीगिरी सिखाई जानी चाहिए. उनका जो दर्जा है, उसके लिए यही काम सबसे मुफ़ीद हैं.”

तिलक इसे ‘शिक्षा का तार्किक सिस्टम’ बताते थे. साल 1881 में पूना सार्वजनिक सभा ने सरकार से 200 लोगों की आबादी वाले हर गाँव में एक स्कूल खोलने की माँग की. तिलक ने फ़ौरन इसका विरोध किया.

उन्होंने कहा कि ‘कुनबियों के बच्चों को शिक्षा देना और कुछ नहीं सिर्फ़ पैसे की बर्बादी है.’ रानाडे सभी के लिए शिक्षा पर ज़ोर देते थे. लेकिन तिलक ने इसका विरोध किया और कहा कि ‘सार्वजनिक धन करदाताओं के पैसे से इकट्ठा होता है. टैक्स देने वालों को ही यह फ़ैसला करने का अधिकार है कि इस पैसे का इस्तेमाल कैसे हो.’ (The Mahratta, 15 May 1881, Our system of Education-A Defect and a Cure)

अंग्रेजी शिक्षा का कभी विरोध नहीं किया तिलक ने
जब महादेव रानाडे ने ज़्यादा से ज़्यादा ग़ैर-ब्राह्मणों को बॉम्बे यूनिवर्सिटी में दाख़िला दिलाने के लिए प्रवेश परीक्षा के पाठ्यक्रम को सरल बनाने की कोशिश की तो तिलक ने इसका भी विरोध किया. (The Mahratta, 7 August 1881, Our University I).

तिलक ने अंग्रेज़ी शिक्षा का कभी विरोध नहीं किया. उनका कहना था, ‘भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा शुरू होने से पहले तक यहां के लोग मूर्खों के झुंड थे.’

तिलक चाहते थे कि शिक्षा सिर्फ़ उन ब्राह्मणों तक सीमित रहे, जिनके पास जमीन हो. वो उन ब्राह्मणों को भी शिक्षा देने के हक़ में नहीं थे जो ग़रीब थे. (The Mahratta, 21 August 1881, Our University III). ग़ैर-ब्राह्मणों की ओर से उनके इन विचारों का भारी विरोध हुआ था.

लिहाजा, 1891 में उन्होंने जाति-व्यवस्था का बचाव करना शुरू किया. उनकी नज़र में यही राष्ट्र-निर्माण का आधार है.

उन्होंने कहा, “हमारे लिए आधुनिक पढ़े-लिखे ब्राह्मण और नए ज़माने के पढ़े-लिखे ग़ैर-ब्राह्मणों के बीच अंतर करना मुश्किल होगा. इस असमानता को महसूस करने का वक़्त आ गया है.’ (The Mahratta, 22 March 1891, What shall we do next? Editorial).

अपने एक ‘धारदार’ संपादकीय- ‘The Caste and Caste alone has Power,’ (10 May 1891)में तिलक ने लिखा, “एक हिंदू राष्ट्र यह मानता है कि अगर इस पर जाति का प्रभाव नहीं होता तो यह कब का मिट चुका होता. रानाडे जैसे सुधारवादी लोग जाति की हत्या कर रहे हैं और इस तरह वे राष्ट्र की प्राण शक्ति को भी ख़त्म कर रहे हैं.”

तिलक ने धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को नकार दिया था. उनका कहना था कि यह ‘विनाशवाद’ को जन्म देती है. वह इस बात पर ज़ोर देते थे कि स्कूलों में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा उसके पारंपरिक रूढ़ और सरल सिद्धांतों के तौर पर दी जाए.

उन्होंने लिखा कि ‘स्कूली बच्चों को बग़ैर किसी लाग-लपेट के बताना होगा कि निश्चित तौर पर भगवान का अस्तित्व है, और जो स्कूली बच्चे यह कहते हैं कि भगवान कहाँ हैं, हम अपनी आँखों से देखना चाहते हैं, उन्हें बेंत मारकर चुप कराना होगा.’ (The Mahratta, 3 July 1904, Religion Education, Editorial).

तिलक होम रूल लीग पर ज़ोर देते थे. उनका कहना था, ‘ब्रिटिश शासन में जाति-व्यवस्था (चतुर्वर्ण) का क्षय होता जा रहा है.’ उन्होंने जामखांडी के ग़ैर-ब्राह्मण प्रशासक पर हमले किए. (The Mahratta, 21 April 1901, Non-Brahmin Craze, Editorial).

उन्होंने कोल्हापुर के महाराजा की यह कह कर आलोचना की कि ‘वे मानसिक संतुलन खो चुके हैं.’ (The Mahratta, 15 November. 1903)

रानाडे ने लड़कियों के लिए स्कूल खोला, इसके खिलाफ थे तिलक
जाति-व्यवस्था का बचाव करने के क्रम में उन्होंने किसी को नहीं छोड़ा. उनके हमले की जद में संकेश्वर के शंकराचार्य (The Mahratta, 31 August 1902) और यहाँ तक कि आदि शंकराचार्य भी आए.

स्त्री शिक्षा का भी तिलक ने उतनी ही तत्परता से विरोध किया. पुणे में लड़कियों के लिए खोले गए रानाडे के स्कूल ने ऐसा पाठ्यक्रम लागू किया था जिससे वे आगे जाकर उच्च शिक्षा ले सकें. रानाडे इस बात पर ज़ोर देते थे कि एक राष्ट्र के समग्र विकास के लिए महिलाओं की शिक्षा बेहद ज़रूरी है.

रानाडे के इस स्कूल में मराठा, कुनबी, सोनार, यहूदी और धर्म बदल कर ईसाई बने समुदायों की लड़कियाँ भी आती थीं. इनमें से कई कथित अछूत परिवारों की लड़कियाँ भी थीं. इसपर तिलक ने कहा, ‘अंग्रेज़ी शिक्षा महिलाओं को स्त्रीत्व से वंचित करती है, इसे हासिल करने के बाद वे एक सुखी सांसारिक जीवन नहीं जी सकतीं.’ (The Mahratta, 28 September 1884).

उनका इस बात पर बहुत ज़ोर था कि ‘महिलाओं को सिर्फ़ देसी भाषाओं, नैतिक विज्ञान और सिलाई-कढ़ाई की शिक्षा दी जानी चाहिए.’

लड़कियाँ स्कूलों में सुबह 11 बजे से शाम पाँच बजे तक पढ़ें, इसका भी उन्होंने विरोध किया.

वे चाहते थे कि लड़कियों को सुबह या शाम सिर्फ़ तीन घंटे पढ़ाया जाना चाहिए, ताकि उन्हें घर का काम करने और सीखने का वक़्त मिले. (The Mahratta, 18 September 1887 Curriculum of the Female High School, Is It In The Right Direction?)

तिलक ने रानाडे को चेताया कि ‘अगर इस पाठ्यक्रम में तुरंत सुधार नहीं किया गया, तो हमें यह देखकर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि पतियों को छोड़ने वाली रकमाबाई जैसी लड़कियों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है’.

भारत में कानूनन तलाक लेने वाली पहली महिला को भी नहीं छोड़ा
दरअसल, रकमाबाई पढ़ी-लिखी थीं और उन्होंने अपने निरकुंश पति दादाजी भीकाजी के साथ रहने से इनकार कर दिया था. रकमाबाई हमेशा अपने साथ मार-पीट की आशंका से डरी रहती थीं. इसलिए उन्होंने पति के साथ रहने से इनकार कर दिया था.
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तिलक ने ‘इसे पूरी हिंदू नस्ल की नाक का सवाल बना दिया था.’ अपने साप्ताहिक अख़बार के आठ पन्नों में पूरे छह पेज भर कर उन्होंने दादाजी का समर्थन किया. उन्होंने लिखा, ‘अगर रकमाबाई अपने पति के साथ जाने से इनकार करती हैं तो उन्हें जेल भेजा जाना चाहिए.’ वे लगातार इस बात पर ज़ोर देते रहे कि रकमाबाई और सरस्वती बाई (पंडिता रमाबाई) जैसे महिलाओं को वैसी ही सज़ा मिलनी चाहिए जैसी चोरों, व्यभिचारियों और हत्यारों को मिलती है. (The Mahratta, 12 June 1887)

रकमाबाई का केस ‘सहमति की उम्र’ विवाद से भी जुड़ा था क्योंकि उनकी शादी बचपन में ही हो गई थी. दरअसल, यह बहस बीएम मालाबारी के इस प्रस्ताव के साथ उठ खड़ी हुई थी कि लड़कियों की शादी की उम्र 10 साल से बढ़ाकर 12 साल कर दी जाए.

तिलक ने इस मामले में भी जीजी अगरकर, महादेव गोविंद रानाडे और दूसरे सुधारवादी नेताओं पर हमले किए. इस मामले में तिलक ने जो लिखा, उन्हें यहाँ शालीनता के लिहाज़ से उद्धृत नहीं किया जा सकता.

दरअसल यह बहस 10 साल की लड़की फूलमणि की मौत के साथ तेज़ हो गई थी. 1890 में फूलमणि की उस वक़्त मौत हो गई थी, जब उनके 30 साल के पति हरि मैती उनसे शारीरिक संबंध बना रहे थे.

तिलक ने लोगों से अपील की कि ‘मैती पहले ही पत्नी को खो चुके हैं, अब उनकी और लानत-मलामत ना की जाए.’ (The Mahratta, 10 August 1890, The Calcutta Child-Wife Murder Case, Editorial). इस त्रासदी ने समाज के हर वर्ग को एकजुट कर दिया और 1891 में ‘सहमति की उम्र’ बिल पास हो गया.

किसानों को जमींदारों और सूदखोरों से मुक्त कराने के लिए अंग्रेज सरकार करते रहे आलोचना
1900 के बाद तिलक राष्ट्रीय व्यक्तित्व बन चुके थे. लेकिन क्या उनका रवैया बदला था? इसका कोई सबूत नहीं मिलता.

तिलक ने हमेशा औपनिवेशिक सरकार की इस बात पर आलोचना की कि ‘उनकी वजह से किसान, ज़मींदारों और सूदखोरों से मुक़्त हो गए.’ (The Mahratta, 8 November 1903, Inamdar’s Grievances, Editorial)

उन्होंने ईनामदार और खोटे जैसे ज़मींदारों का ज़ोर-शोर से बचाव किया. तिलक ने किसानों को मज़बूत बनाने के प्रयासों का हमेशा विरोध किया. (The Mahratta, 27 September 1903. The Khoti Bill, Editorial)

जब डी. के. कर्वे ने 1915 में महिला यूनिवर्सिटी की स्थापना की तो तिलक का कहना था, ‘हमें एक औसत हिंदू लड़की को बहू के तौर पर देखना चाहिए जिसका अपने पति के घर के लोगों के प्रति ख़ास कर्तव्य हों.’ उन्होंने कर्वे से कहा कि ‘वो यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम को खाना बनाने, घर के अर्थशास्त्र और बच्चों की देखभाल जैसे विषयों तक सीमित कर दें.’ (The Mahratta, 27 February 1916, Indian Women’s University)

अपने अख़बार ‘द महरट्टा’ और नगरपालिका में अपने समर्थकों के ज़रिए तिलक ने लड़कियों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का विरोध किया.

मार्क्सवादी इतिहासकारों ने तिलक को हीरो बनाया
सुधारवादियों और भारतीय समाज में उठ रहे प्रगतिशील क़दमों पर अपने हमलों के इस पूरे दौर में तिलक का ब्रिटेन में कम्युनिस्ट पार्टी के भारतीय सदस्यों से काफ़ी नज़दीकी संबंध रहे.

तिलक ने लेनिन और रूसी क्रांति का समर्थन किया. सोवियत और भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकार तिलक को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा नेता मानते हैं.

ये रानाडे, गोखले और समावेशी भारत को बनाने वाले असली नेताओं को ‘उदारवादी’ कहकर ख़ारिज करते हैं.

इन्होंने जानबूझकर रानाडे को भुला दिया. इसके साथ ही ये तिलक के किसान, महिला विरोधी और जाति के समर्थन में छेड़े गए अभियानों को भूल गए. इन इतिहासकारों को सिर्फ़ उनका जेल जाना और 1908 की कपड़ा मिल हड़ताल में शामिल होना याद रहा.

आज एक सदी बाद भी महाराष्ट्र में पूरी तरह बर्बाद हो चुके किसान आत्महत्या कर रहे हैं. जाति का संघर्ष चरम पर है और महिलाएँ बड़े पैमाने पर भेदभाव का शिकार बनती हैं.

1880 में तिलक को एक जीवंत महाराष्ट्र मिला था. 1920 में उन्होंने इसे पूरी तरह बँटा हुआ छोड़ दिया और तिलक के इस अतिरेक के लिए औपनिवेशिक शासन को दोषी ठहराना ठीक नहीं है.

– लेखिका परिमला वी. राव दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं. यह आलेख उन्होंने बीबीसी के लिए लिखा है. यहां हम इसे साभार प्रस्तुत कर रहे हैं.)

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