पूरी दुनिया हो गई है नजरबंद, पृथ्वी पर छाया अभूतपूर्व संकट

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कोविड-19 : लॉकडाउन के लिए दफन पड़े पुराने कानून करने पड़े हैं लागू

सुपर कंप्यूटर माडल से जो गणना की गई है, उसका एक निष्कर्ष यह है कि सामाजिक अलगाव से इसके प्रसार में 60 से 89 फीसदी की कमी हो सकती है. कम चिकित्सा संसाधन के कारण इस महामारी से लड़ने का भारत के पास फिलहाल संपूर्ण लॉकडाउन अथवा सामाजिक अलगाव ही उपाय है. कोरोना विषाणु के मनुष्य से मनुष्य में फैलने के कारण ही सामाजिक दूरी बनाने, अनजान लोगों से नजदीकी शारीरिक स्पर्श का निषेध करने और हफ्तों घरों में बंद रहने की नीति अपनाई गई है…
*आलेख-कृष्ण किसलय,
पृथ्वी का यह संकट
मानव सभ्यता के इतिहास का अभूतपूर्व संकट है. कोरोना वायरस जनित बीमारी कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में पूरी दुनिया नजरबंद है. हालात प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्धों से भी बदतर होने जा रहे हैं. भारत में तो जैसे कर्फ्यू ही लागू है. कानून की किताब और सरकारी दस्तावेज में जरूरत नहीं होने के कारण धूल फांक रहा 123 साल पुराना महामारी अधिनियम 1897 को जीवित करना पड़ा है. उन्हें लॉकडाउन के लिए उसमें निहित शक्ति का उपयोग करना पड़ा है. रेलसेवा जो युद्ध के दिनों में भी ठप नहीं हुई, उसे बंद करनी पड़ी है. यह आपदा ऐसी है कि सभी धार्मिक स्थलों में भगवान को श्रद्धालुओं से अलग कर दिया गया है. हजारों की संख्या में देश के सभी धर्मों के धार्मिक स्थलों को आम श्रद्धालुओं से दूर कर दिया गया है.
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यह नई तरह की आपदा अदृश्य है. ऐसा सूक्ष्म हमलावर परजीवी है, जो आंखों से दिखाई नहीं देता. इस अदृश्य दुश्मन से दुनिया में 30 हजार से अधिक लोग मौत की भेंट चढ़ चुके हैं और 06 लाख से अधिक इसके असंदिग्ध मरीज हैं. भारत में 47 विदेशी सहित 1000 से अधिक संक्रमित हैं और मरने वाले की संखया बढ़ती ही जा रही है. आने वाले दिनों में परिस्थिति कितनी और कैसी विकट होगी, यह अनुमान लगाना कठिन है.

सामाजिक अलगाव (सोशल डिस्टेन्स) ही बचाव का उपाय  
विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने बताया है कि वैश्विक महामारी कोविड-19 अनुमान से अधिक व्यापक होता जा रहा है. यह जंतु या वनस्पति से नहीं, बल्कि आदमी से आदमी में स्थानांतरित होने वाली बीमारी है. इसके संक्रमण से ग्रस्त व्यक्ति में लक्षण प्रकट होने में 14 दिनों तक का समय लगता है. इसकी कोई दवा अभी ईजाद नहीं हुई है. देश-प्रदेश के अस्पतालों में आबादी के मुकाबले सैनिटाइज्ड आइसोलेशन वार्ड नहीं के बराबर हैं. इसीलिए सामाजिक अलगाव (सोशल डिस्टेन्स) ही इससे बचाव का उपाय है.

लॉकडाउन ही एकमात्र उपाय है भारत के पास
सुपर कंप्यूटर माडल से जो गणना की गई है, उसका एक निष्कर्ष यह है कि सामाजिक अलगाव से इसके प्रसार में 60 से 89 फीसदी की कमी हो सकती है. कम चिकित्सा संसाधन के कारण इस महामारी से लड़ने का भारत के पास फिलहाल संपूर्ण लॉकडाउन अथवा सामाजिक अलगाव ही उपाय है. कोरोना विषाणु के मनुष्य से मनुष्य में फैलने के कारण ही सामाजिक दूरी बनाने, अनजान लोगों से नजदीकी शारीरिक स्पर्श का निषेध करने और हफ्तों घरों में बंद रहने की नीति अपनाई गई है. यह सूचना सुखद है कि देश में सरकार सहित निजी क्षेत्र तीव्र गति से कोरोना के मरीजों के लिए अस्पताल और स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाने में सहयोग कर रहे हैं. परीक्षण (टेस्टिंग) किट के उत्पादन को गति मिली है, जो मात्र दो घंटे में इस जानलेवा वायरस के संक्रमण का पता लगाने में सक्षम हैं.
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जीना मुश्किल बना देने वाली आपदा  
भारत आंतरिक विस्थापितों का देश है. यहां लोग रोजी-रोटी और शिक्षा के लिए अपना घर छोड़ दूर के शहरों में जाते रहते हैं. आम लोगों के लिए इस हालात का सामना करना बेहद कठिन है. जो जहां है, वहीं बना रहे के कठोर फैसला से, लॉकडाउन से दिहाड़ी पर काम करनेवाले मजदूर और उनके परिजन संकट में हैं. देश की कुल श्रम शक्ति का 90 फीसदी असंगठित क्षेत्र में है, जिनके लिए 14 अप्रैल तक बंदी जीना मुश्किल बना देने वाली होगी. घनी आबादी, कम जोत, प्रति व्यक्ति कम आर्थिक संसाधन और प्रवासी श्रमिकों वाले प्रदेशों की हालत तो बेहद मुश्किल भरी हो सकती है. विभिन्न प्रदेश के विभिन्न राज्यों में बड़ी संख्या में लोग फंसे हुए हैं. संकट की मौजूदा स्थिति में ऐसे लोगों की अपने गृहप्रदेश लौटने की बेचैनी स्वाभाविक है. यह दृश्य कितना पीड़ादायक है कि आश्रय के अभाव में मजदूर पैदल ही 1000-1500 किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए चल पड़े हैं.

सब्र की अग्निपरीक्षा अभी बाकी
यह ऐसी घड़ी है, जिसमें आम लोगों को धीरज और सब्र की अग्निपरीक्षा देनी अभी बाकी है. जैसे-जैसे लाकडाउन का समय गुजरेगा, वैसे-वैसे परिस्थिति और विकट होगी. यह ऐसी दुख की घड़ी है, जिसमें दूर से आंसू बहा सकते हैं, मगर दुख में शामिल होने नहीं जा सकते हैं.

यह तो शुक्र है कि यह युग इंटरनेट और मोबाइल फोन का है, जिससे सबको तक सूचनाएं पहुंच रही हैं. मगर इसमें फेक सूचनाओं से बचना भी है, क्योंकि फेसबुक, वाह्टसएप पर अराजक पुराणवीर अधिक पैदा हो गए हैं. खाद्य आपूर्ति बाधित होने से दाल, तेल, आटा, आलू, प्याज आदि आवश्यक उपभोक्ता सामग्री की किल्लत होना भांपकर कालाबाजारियों ने रोजमर्रा की चीजों की कीमत बढ़ा दी है. आशंका में लोग खाद्य सामग्री घरों में स्टोर करने लगे हैं. इस मास हिस्टीरिया के असर से आबादी के बड़े हिस्से को आवश्यक उपभोक्ता सामग्री के अभाव का शिकार होने से बचाने की बड़ी प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार और प्रशासन के कंधों पर आ गई है.

सामर्थ्यवान के आगे आने का वक्त
दानी धनवानों के लिए यह वक्त है कि वह अपनी नेकनियती की, अपनी बरकत की, अपने धनबल की जोरआजमाईश करें. समाज के सामर्थ्यवान की यह जिम्मेदारी इसलिए है कि उन्होंने सब कुछ समाज से ही पाया है. संतोष की बात है कि इस अदृश्य दुश्मन से लड़ाई में राजनीतिक और स्वयंसेवी कार्यकर्ता आगे आ रहे हैं. सरकार ने प्रशासन को लाकडाउन लागू की जिम्मेदारी सौंप रखी है. विषाणु-युद्ध के अग्रिम मोर्चा पर लडऩे वाले प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा, आपूर्ति आदि के वीरों को सैल्यूट करने का भी वक्त है यह.

बहरहाल, आदमी का काफिला सभ्यता के इतिहास में हजारों सालों से तरह-तरह की आपदओं, संकट से जूझते-बचते हुए 21वीं सदी तक पहुंचा है. माइक्रोस्कोप के आविष्कार के बाद वायरसों से, विषाणुओं से निपटने का सदियों का अनुभव हासिल है और सूक्ष्म जैविकी चिकित्सा में भी प्रगति हुई है. फिर भी तकलीफ की यह ऐसी घड़ी है, जिसे समाज ही नहीं, परिवार भी नहीं बांट सकता. सिर्फ और सिर्फ दूर रहकर सांत्वना दी जा सकती है. इसीलिए यह समय परोपकार का है, अन्नदाता बनने का है और भूखों के लिए भोजन प्रबंध करने का है. इस कठिनतम संकट की घड़ी में एकजुटता, उच्च मनोबल, धीरज, करुणा, सहयोग भाव की जरूरत है. और, इस हौसले से काम लेना है-
माना कि कोरोना के औकात
दिखाने का यह वक्त है अभी
मगर आदमी ने तो देखा है
मंजर-ए-दर्द बड़ा से बड़ा भी
बस, जरा इतमिनान की बात है
गुजर जाएगा यह सैलाब भी..!
 

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