राजनीति

राजनीति के चोले में धर्माचार्य का.. आख्यान!

विचार विशेष
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*विनोद देशमुख-

राजनीति : उत्तराखंड में ज्योतिर्मठ के पीठाधीश ने कहा, “शिवसेना (यूबीटी) पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे की सरकार को धोखे से गिरा दिया गया.” ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने उद्योगपति मुकेश अंबानी के पुत्र के विवाह में शामिल होने के बाद उद्धव ठाकरे जी के निमंत्रण पर मातोश्री बंगले भी गए. वहां उन्हें यह भान हुआ- “ठाकरे जी के साथ विश्वासघात किया गया, धोखे से उनका मुख्यमंत्री पद छीन लिया गया.”

इसके बाद बाद पत्रकारों से धोखा और विश्वासघात की बात करते हुए उन्होंने कहा, “मैं उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनते देखना चाहता हूं.” हिंदू धर्म के सर्वोच्च नेता पद पर बैठे धर्माचार्य का यह पक्षपात युक्त उद्गार ‘एक नेता की तरह का राजनीतिक बयान’ माना जा रहा है. साथ ही एक धर्माचार्य का ऐसा एक पक्षीय बयान अब बहस का मुद्दा बन गया है.

दोबारा मुख्यमंत्री बनो!, प्रधानमंत्री बनो!…आशीर्वाद देना अलग है और राजनीतिक घटनाओं पर सीधे टिप्पणी करना अलग है. प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्मगुरु, साधु-संत राजपरिवार के मार्गदर्शक रहे हैं. लेकिन उन्होंने कभी राजनीति में हस्तक्षेप नहीं किया. धर्मगुरुओं द्वारा उन्हें बहुत ही विचारोत्तेजक सलाह दी जाती थी. लेकिन यहां तो शंकराचार्य सीधे तौर पर शासन प्रक्रिया में ही भाग लेते नजर आ रहे हैं, खुलेआम एक पक्ष ले रहे हैं और दूसरे पक्ष पर आरोप लगा रहे हैं. यह मुद्दा भी उठाया गया कि क्या यह धर्माचार्यों का मामला है?

2019 में भाजपा द्वारा उन्हें अंशकालिक मुख्यमंत्री पद नहीं देने और 2022 में शिवसेना के बागियों द्वारा ठाकरे सरकार गिराने की दोनों घटनाओं को विश्वासघात मानकर कोई भी यह कह सकता है कि शंकराचार्य ने भाजपा और शिवसेना (शिंदे) दोनों की राजनीति में हस्तक्षेप किया है. भाजपा और शिवसेना दोनों ही हिंदुत्ववादी पार्टियां हैं, आज आम हिंदू जनता इस बात से हैरान है कि हिंदुत्व से ‘दूर की सोच’ से संबंध बनाने वाली शिवसेना (यूबीटी) की एक शाखा “शंकराचार्य” कैसे बन गई. 

इसका कारण शंकराचार्य द्वारा की गई राजनीति है. देखिए, उनके दोनों बयान कितने पक्षपातपूर्ण हैं कि हिंदू धर्म में विश्वासघात को सबसे बड़ा माना जाता है और जो लोग बहुमत प्राप्त करते हैं, उन्हें पूर्णकालिक शासन करने की अनुमति दी जानी चाहिए. लेकिन उन्हें यह नहीं दिखाई दिया कि उद्धव ठाकरे जी को एक बड़ी संख्या में उन्हीं की पार्टी के लोगों ने छोड दिया और वे अल्पमत में आ गए थे. यहां तक कि जिन कांग्रेस और एनसीपी का साथ लेकर वे मुख्यमंत्री बने थे, वे भी ऐसी परिस्थिति में उन्हें सत्ता में बनाए रखने में समर्थ नहीं हो पाए.

बहुमत तो भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के चुनाव पूर्व गठबंधन को मिला था. लेकिन शंकराचार्य को यह नहीं दिखा कि जिस गठबंधन को जनता ने सरकार बनाने का अधिकार दिया था, उस गठबंधन को छोड़कर किसने जनमत के खिलाफ जाकर विपक्ष से हाथ मिला लिया और अपनी सरकार बना ली? क्या यह गठबंधन और जनता के साथ विश्वासघात नहीं था? यदि शिवसेना (शिंदे) और भाजपा ने इस सरकार को गिरा भी दिया और मूल जनमत के कौल को बहाल किया तो यह विश्वासघात कैसे है?

 इसके उलट, जैसा कि शंकराचार्य कहते हैं, अगर 2019 में भाजपा – सेना गठबंधन की सरकार आती तो वह अपने आप 5 साल तक चलती. (और शायद अगले ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री का पद किसी समझौते के बाद शिवसेना के पास जा सकता था.) तो क्या शंकराचार्य को यह दिखाई नहीं दे रहा कि शिवसेना (यूबीटी) ने महाराष्ट्र के मतदाताओं को धोखा दिया और जनमत का अपमान किया? समझौते के अनुसार मुख्यमंत्री पद पाने के वैध रास्ते को बंद करके अवैध रूप से दूसरों की मदद लेकर मुख्यमंत्री का पद लेना, क्या उद्धव ठाकरे के लिए शोभनीय था?

शंकराचार्य ने यह भी धर्म सम्मत मत प्रस्तुत किया कि जो गद्दारी करता है, वह हिंदू नहीं हो सकता. अब वे बताएं- उपरोक्त मामले में कौन गद्दार है और कौन हिंदू नहीं है..! वे जरा इस ओर भी तो गौर करें कि मोदी को रोकने के लिए क्या सच्चे हिंदू, गैर-हिंदुओं के पीछे भाग रहे हैं, वोट के लालच में हिंदुओं को बदनाम कर रहे हैं या सच्चे हिंदू वे हैं, जो हिंदुत्व के मुद्दे पर अड़े रहे, चाहे सीटें कम ही मिलीं..!

यदि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती, हिंदू धर्माचार्य होने के बावजूद, यह भेद नहीं कर सकते (वास्तव में विवेक!) तो हिंदुओं के बारे में उनके मत में कोई सच्चाई नहीं मानी जा सकती..! हे आत्मन, जब धर्माचार्य राजनीति में हाथ बंटाते हैं और पक्षपात करते हैं तो उनसे इसी प्रकार का अधर्म हो जाता है..!!

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@विनोद देशमुखवरिष्ठ पत्रकार, स्तम्भकार. 

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