अग्रिम जमानत

अग्रिम जमानत : SC/ST संशोधन कानून की वैधता को चुनौती खारिज 

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सुप्रीम कोर्ट का फैसला, जमानत केवल असाधारण स्थितियों में

 
नई दिल्ली : अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अग्रिम जमानत मामले में SC/ST संशोधन अधिनियम, 2018 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है. जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस, विनीत सरन और जस्टिस एस. रवींद्र भट की पीठ ने आज सोमवार को ये फैसला सुनाया है.

सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने कहा कि कानून में अग्रिम जमानत का कोई प्रावधान नहीं है और न ही गिरफ्तारी से पहले अनुमति लेने की आवश्यकता है. हालांकि, अदालत असाधारण मामलों में FIR रद्द कर सकती है. वहीं न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने अलग आदेश जारी कर कहा कि गिरफ्तारी से पहले जमानत केवल असाधारण स्थितियों में दी जानी चाहिए, जहां जमानत से इंकार करना न्याय का गर्भपात होगा.

याचिकाकर्ताओं का मानना था कि कानून में यह संशोधन “राजनीतिक दबाव” के कारण किया गया है और अग्रिम जमानत नहीं देने का प्रावधान मनमाना और अन्यायपूर्ण है. उन्होंने इसे मनमाना और अन्यायपूर्ण बताया था.

3 अक्तूबर 2019 से फैसला था सुरक्षित 
इस मामले में पिछले वर्ष 3 अक्तूबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रख लिया था. दरअसल सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च, 2018 के फैसले को पलटने के लिए संसद ने ये संशोधन कर कड़े प्रावधानों को फिर से लागू कर दिया था. यह संकेत देते हुए कि संशोधनों को बरकरार रखा जाएगा, जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस विनीत सरन और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ ने मौखिक रूप से कहा था कि न्यायालय इस अधिनियम को कमजोर नहीं करेगा.

विशेष रूप से जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने ही 1 अक्तूबर 2019 को दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा मार्च 20,2018 के फैसले पर केंद्र की पुनर्विचार याचिका की अनुमति देकर शर्तों को वापस ले लिया था. पीठ ने कहा था कि डॉ. सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य में इस न्यायालय द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के प्रयोग कर जारी किए गए दिशा-निर्देश संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के तहत समाज के दबे-कुचले वर्गों के पक्ष में सुरक्षात्मक भेदभाव की अवधारणा के खिलाफ हैं और निर्धारित मापदंडों के भीतर भी असंगत हैं.

जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने कहा था कि इस बात की कोई धारणा नहीं हो सकती कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्य वर्ग के रूप में कानून के प्रावधानों का दुरुपयोग कर सकते हैं. यह सभी मानवीय गरिमा के खिलाफ होगा कि वे सभी को झूठा मानें और हर शिकायतकर्ता की शिकायत को शक की निगाह से देखें.

दायर याचिकाओं में निवेदन 
वकील पृथ्वीराज चौहान, प्रिया शर्मा और कुछ अन्य लोगों द्वारा दायर याचिकाओं में प्रार्थना की गई थी कि 1989 के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 2018 में संशोधन अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन है और ये संविधान की बुनियादी संरचना के साथ छेड़छाड़ है. संशोधन के माध्यम से जोड़े गए नए कानून 2018 में नए प्रावधान 18 A के लागू होने से फिर दलितों को सताने के मामले में तत्काल गिरफ्तारी होगी और अग्रिम जमानत भी नहीं मिल पाएगी.

संशोधित कानून के प्रावधान
इस संशोधन कानून के जरिये एससी एसटी अत्याचार निरोधक कानून की धारा 18 ए कहती है कि इस कानून का उल्लंघन करने वाले के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है और न ही जांच अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले किसी से इजाजत लेने की जरूरत है. इस कानून के तहत अपराध करने वाले आरोपी को अग्रिम जमानत के प्रावधान (सीआरपीसी की धारा 438) का लाभ नहीं मिलेगा, यानि अग्रिम जमानत नहीं मिलेगी. संशोधित कानून में साफ कहा गया है कि इस कानून के उल्लंघन पर कानून में दी गई प्रक्रिया का ही पालन होगा और अग्रिम जमानत नहीं मिलेगी. याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि संशोधन को “राजनीतिक दबाव” के चलते किया है और अग्रिम जमानत नहीं देने का प्रावधान मनमाना और अन्यायपूर्ण है.

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