हिजाब

हिजाब : मामूली कॉलेज प्रशासन का मसला बना राष्ट्रीय मुद्दा

देश विचार
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व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, धार्मिक स्वतन्त्रता और धार्मिक अस्मिता का मामला भी जुड़ गया

*धीरंजन मालवे –
सर्वथा अनावश्यक विवाद : कर्नाटक के एक छोटे से शहर उडुपी से शुरू हुआ एक मामूली सा लगने वाला कॉलेज प्रशासन का मसला आज एक राष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है. उडुपी के एक प्रि-युनिवर्सिटी कॉलेज ने अपने छात्रों के लिए विशेष परिधान निर्धारित किया हुआ है और हिजाब उसका हिस्सा नहीं है. मगर कॉलेज की छह मुस्लिम लड़कियों ने तय किया कि वे हिजाब पहन कर ही कॉलेज जाएंगी. कॉलेज के नियम के अनुसार वहाँ के परिसर में तो हिजाब पहना जा सकता है, मगर कक्षा में नहीं.
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जब इन छह लड़कियों ने कक्षा में भी हिजाब उतारने से मना कर दिया तो कॉलेज प्रशासन ने भी कड़ा रुख अपनाया और उन लड़कियों से कहा गया कि वे कक्षा में बैठ कर पढ़ाई नहीं कर सकतीं. अगर कुछ नोट वगैरह लेना है तो कक्षा के बाहर से ही सुन कर ले सकती हैं.

धीरे-धीरे हिजाब का मुद्दा कर्नाटक के अन्य शहरों में भी उठने लग गया. कई अन्य कॉलेजों में भी कॉलेज के प्रशासन ने जहाँ हिजाब न पहनने पर जोर दिया, वहीं लड़कियों के परिवार वालों का कहना था कि वे बिना हिजाब के क्लास में नहीं जाएंगी. कट्टरपन्थी इस्लामी संगठन, पीपुल्स फ्रण्ट ऑफ इण्डिया का छात्र संगठन, कैम्पस फ्रण्ट ऑफ इण्डिया भी इसमें कूद पड़ाा. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल भी सामने आ गए.
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इस मसले के साथ व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, धार्मिक स्वतन्त्रता और धार्मिक अस्मिता का मामला भी जुड़ने लग गया. मसला अब राजनीतिक और कानूनी लड़ाई का रूप ले चुका है. कर्नाटक उच्च न्यायालय में इस सिलसिले में दायर की गई याचिका की इसकी सुनवाई पूरी हो गई है और निर्णय का इंतज़ार है. चूंकि निर्णय किसी न किसी पक्ष के विपरीत तो होगा ही, अतः इस मामले का सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचना लगभग तय जैसा ही लगता है.

इस बीच हम इस मसले के कानूनी पक्ष पर गौर करते हैं. मुख्य मुद्दा धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का है और इसके साथ व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को जोड़ दिया गया है. धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार को संविधान का अनुच्छेद 25 सुनिश्चित करता है. अनुच्छेद 25 के अनुसार हर नागरिक को समान रूप से अपने धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है, बशर्ते कि ऐसा करने से लोक-व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य का कोई मसला खड़ा नहीं होता हो.

हिजाब के साथ लोक-व्यवस्था, सदाचार या स्वास्थ्य जैसा कोई मसला तो नहीं जुड़ा है, मगर इस बात पर गौर करना जरूरी है कि क्या यह धर्म का अविभाज्य अंग है? क्या इसे इस्लाम के पालन के लिए अनिवार्य माना जा सकता है? अथवा क्या यह अपनी धार्मिक पहचान पर जोर देने का एक जरिया भर है?

इस मसले पर दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें हैं. एक पक्ष का कहना है कि हिजाब इस्लाम का अविभाज्य अंग है और इस संदर्भ में वे कुरान की आयत का भी जिक्र करते हैं. मैं इस्लाम और कुरान पर आधिकारिक बयान देने के योग्य तो स्वयं को नहीं मान सकता. हां, अपने अनुभव से मैंने जो पाया है, उसका जिक्र अवश्य करूंगा.

अपने स्कूल, कॉलेज के दिनों में मेरा वास्ता अपने मुस्लिम साथियों से बराबर पड़ता था. उनमें लड़कियां भी थीं. उन दिनों हिजाब का हम लोगों ने नाम भी नहीं सुना था. बुर्के से हम लोग जरूर परिचित थे. इसमें भी एक वर्ग विभेद था. अपेक्षाकृत पिछड़े तबकों से आने वाली मुस्लिम लड़कियां बुर्के का इस्तेमाल करती तो थीं, मगर स्कूल-कॉलेज पहुंच कर उसे उतार देती थीं. कई सारी ऐसी लड़कियां भी थीं, जो घर से तो बुर्का पहन कर चलती थीं, मगर मुहल्ला पार होते ही उसे उतार कर अपने बैग में डाल लेती थीं. विकसित और शिक्षित मुस्लिम परिवारों में बुर्के का चलन बिल्कुल नहीं था. बस इतना ही था कि वे माथे पर चुन्नी अवश्य रखती थीं. मगर ऐसा करने वालियों में हिन्दू लड़कियां भी थीं. अपनी नौकरी के दौरान भी अनेक मुस्लिम महिलाओं के साथ काम करने का मौका मिला.
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चूँकि मैं मीडिया से जुड़ा था, अतः साथ काम करने वाली मुस्लिम महिलाएं खासी उन्मुक्त, वाचाल और दबदबा रखने वाली थीं. मगर इस नई सदी में उनमें भी बदलाव आने लगा. अचानक मैंने पाया कि चन्द महिलाएं अब अपनी पुरानी वेशभूषा छोड़ कर हिजाब में आने लगी हैं. वे महिलाएँ श्रीनगर की रहने वाली थीं. उत्सुकतावश जब मैंने इस अचानक बदलाव का कारण पूछा तो उन्होंने बात को टाल दिया. जाहिर है कि इसका सीधा सम्बन्ध कश्मीर घाटी के माहौल में आ रहे बदलाव से जुड़ा था. घाटी के मुस्लिम सूफी इस्लाम का पालन करते आ रहे थे. मगर पाकिस्तान समर्थक कट्टरपन्थियों का प्रभाव निरन्तर बढ़ रहा था और सूफी इस्लाम विगत समय की बात बनती जा रही थी. पहनावे में आए इस बदलाव को कट्टरपन्थियों के निरन्तर बढ़ते प्रभाव के साथ ही जोड़कर देखना होगा.

अगर हम इस नजरिए से देखें तो हिजाब पहनने को लेकर चल रहे विवाद को निरंतर आगे बढ़ते जा रहे इस्लामी कट्टरपन्थ के साथ जोड़ कर देखना पड़ेगा. कॉलेज में हिजाब पहनकर आने वाली लड़कियों पर परिवार और समाज के दबाव से इन्कार नहीं किया जा सकता. ऐसे में यह तर्क बहुत गले नहीं उतरता कि हिजाब का इस्तेमाल धार्मिक कारणों से आवश्यक है. अगर सचमुच में ऐसा होता तो अब तक मुस्लिम समाज से आने वाली अभिनेत्रियों और मॉडलों के विरुद्ध फतवे अवश्य ही जारी हुए होते. हाल ही में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की प्रथम महिला जज, आयशा मलिक के शपथ ग्रहण की जो तस्वीर जारी हुई थी उसमें उन्होंने कोई हिजाब नहीं पहना था और उनके बाल प्रदर्शित हो रहे थे.

पाकिस्तान पर कुछ और चर्चा समीचीन लगती है. पाकिस्तान का निर्माण ही धर्म के आधार पर हुआ था. मगर निर्माण के कई दशकों तक हिजाब को लेकर कोई दबाव नहीं था. खास कर उच्च वर्ग की महिलाएं, हिजाब या ऐसे किसी बन्धन की कोई परवाह नहीं करती थीं. मुझे बेनजीर भुट्टो की युवावस्था की वह तस्वीर आज भी याद है, जो 1972 के शिमला समझौते के दौरान की थी. वे अपने पिता जुल्फिकार अली के साथ भारत आई थीं और उन्होंने हिजाब को स्वयं से दूर ही रखा था.अस्सी के दशक में जब जेनरल जिया सत्ता में आए तब पाकिस्तान में अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए उन्हें कट्टरपन्थियों के समर्थन की जरूरत थी और उन्हें खुश करने के लिए उन्होंने आदेश जारी करते हुए हिजाब को अनिवार्य बना दिया था.

आज भी हिजाब हर मुस्लिम देश में अनिवार्य नहीं है. टर्की, ट्यूनीशिया में हिजाब पहनने का कोई दबाव नहीं है, मगर किसी भी धर्मगुरु ने इन देशों को इस्लाम से निष्कासित नहीं किया है. इन उदाहरणों से यही पता चलता है कि हिजाब पहनना मुसलमान होने की आवश्यक शर्त नहीं है.
अगर यह मान भी लिया जाए कि किसी मुस्लिम ग्रन्थ में ऐसा कुछ कहा गया है, जिसका विश्लेषण करने से हिजाब की अनिवार्यता सिद्ध होती है, तब भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि धर्म ग्रन्थों के आप्त वाक्यों की टीका, समय और परिस्थितियों में बदलाव के साथ-साथ बदलती रहती है. हिजाब उसका अपवाद नहीं हो सकता.

हिजाब के समर्थन में एक तर्क यह भी है कि यह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और चुनाव का मामला है. मगर इस तर्क में विरोधाभास है. अगर कोई चीज किसी धर्म का अनिवार्य अंग है तो वह व्यक्तिगत चुनाव का मामला नहीं हो सकती. ठीक उसी प्रकार, यदि यह व्यक्तिगत चुनाव का मसला है तो धर्म का अनिवार्य अंग नहीं हो सकता.

अगर हम हिजाब से जुड़ी सारी परिस्थितियों पर ध्यान दें तो यह इस्लामी कट्टरपन्थ के निरन्तर बढ़ते प्रभाव का परिचायक है और यह प्रभाव अपनी धार्मिक पहचान को अत्यन्त मुखर रूप से अभिव्यक्त करने के लिए मुस्लिम महिलाओं और हिजाब को हथियार बना रहा है. मगर स्वयं को शेष जनसंख्या से अलग दिखाने की यह जद्दोजहद उन्हें देश और समाज की मुख्य धारा से अधिक से अधिक दूर ले जायेगी और मुस्लिम समाज के विकास में बाधक बन सकती है. साथ ही, यह सामाजिक समरसता और आपसी सद्‌भाव में भी रुकावट पैदा कर सकती है.

हिजाब पहनने वाली लड़कियों को किसी भीड़ द्वारा परेशान किया जाना अनुचित है, लेकिन धार्मिक या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नाम पर कट्टरपंथ और सामाजिक विभेद को बढ़ावा देना कहीं से भी उचित नहीं है. सच पूछा जाए तो सभी बच्चों के लिए समान वेशभूषा के पीछे जो एक उदात्त भावना छिपी हुई है, हिजाब को लेकर किया जाने वाला आक्रामक आग्रह इस भावना के सर्वथा विपरीत है.
Dhiranjan Malve
लेखक धीरंजन मालवे प्रसिद्द वरिष्ठ मीडिया कर्मी हैं.

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