अप्रासंगिक पहलुओं और झूठे आंकड़ों की दलील से अदालतों को हमेशा गुमराह किया ईपीएफओ ने
*कल्याण कुमार सिन्हा-
बुद्धि विलास में डूबे ईपीएफओ और केंद्र का श्रम मंत्रालय अपनी सोची समझी गिद्ध जैसी रणनीतिक भूमिका निभा रहा है. EPS-95 के अंतर्गत संशोधित पेंशन देने के अपने प्रावधानों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्थाओं और फैसलों को स्वीकार करने के बजाय उन्हें निष्प्रभावी करने और गलत बताने के लिए फिर पुनर्विचार याचिका (review petition) और SLP लेकर उसी की चौखट को खटखटाने में लगे हैं.
गिद्ध की तरह इंतजार
निश्चय ही उन्हें भी पता है कि सुप्रीम कोर्ट के लिए उनकी इन भोथरी याचिकाओं पर उनकी इच्छा के अनुरूप फैसले देना इतना भी आसान नहीं है. स्पष्ट है उनका यह प्रयास मात्र सुप्रीम कोर्ट और केरल हाईकोर्ट के फैसलों को लागू करने से बचने और विलम्बित करने वाला है. प्रतीत होता है कि सरकार और ईपीएफओ गिद्ध की तरह इस इंतजार में हैं कि असहाय वृद्ध पेंशनरों की प्राकृतिक मौत हो जाए, जिससे उन पर संशोधित पेंशन देने का बोझ कम हो जाए. इधर कोविड-19 महामारी भी उनकी यह मंशा पूरी करने में मदद कर रहा है. अभी तक संशोधित पुनरीक्षित पेंशन पाने की आश लगाए लाखों पेंशनर धनाभाव में अपना इलाज कराए बिना भी जान से हाथ धो बैठे हैं.
ईपीएस-95 में 2014 के संशोधनों में कुल मिलाकर मामले की दो साल की लंबी जांच के बाद केरल उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच के फैसले के लगभग 35 महीने हो चले हैं. डिवीजन बेंच के उक्त फैसले ने ईपीएफओ को वास्तविक वेतन के आधार पर ईपीएस योगदान स्वीकार करने के लिए अनिवार्य कर दिया है, जिन्होंने इसे चुना है और तदनुसार वे संशोधित/पुनरीक्षित पेंशन के पात्र हैं.
केरल उच्च न्यायालय के उस महत्वपूर्ण फैसले को बरकरार रखने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ ईपीएफओ द्वारा समीक्षा याचिका का इतने समय से सुनवाई के लिए लटकाए रखना ईपीएफओ को उन पेंशनरों के साथ जानबूझ कर अन्याय करते रहने की छूट देने जैसा है, जो सुप्रीम कोर्ट के आर.सी. गुप्ता केस के फैसले के आधार पर संशोधित उच्च पेंशन पाने के हकदार हैं.
ईपीएफओ के लिए तो पूरे देश में केरल हाईकोर्ट के आदेश को भी लागू नहीं करने का कानूनी रूप से कोई उचित कारण नहीं है. यही कारण है कि आदेशों को लागू नहीं करने वाले ईपीएफओ के खिलाफ कई प्रभावित याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर अदालती अवमानना के मामलों का निपटारा याचिकाकर्ताओं के पक्ष में किया गया था.
इन सबके बावजूद श्रम एवं रोजगार मंत्रालय न्यायिक आदेशों का सम्मान न करके और नियमों में आवश्यक संशोधनों को अधिसूचित नहीं कर ईपीएफ और ईपीएस सदस्यों के साथ धोखाधड़ी करने के समान अन्याय कर रहा है.
गिद्ध कर रहे पेंशन जीवियों की प्राकृतिक मृत्यु की प्रतीक्षा
इसमें कोई संदेह नहीं है कि श्रम मंत्रालय, ईपीएफओ को न्यायिक आदेशों के कार्यान्वयन को अनंत काल के लिए स्थगित करने और न्याय को नाकाम करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. सरकार और ईपीएफओ की ऐसी क्रूर मानसिकता बेमिसाल है. जाहिर है सरकार और ईपीएफओ दोनों ही गिद्ध की तरह असहाय पेंशन जीवियों की प्राकृतिक मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो वर्तमान में कम से कम अपनी बेहतर पेंशन पाने की आश लगाए, उनके पसीजने का इन्तजार कर रहे हैं.
ईपीएफओ द्वारा ईपीएस-95 को विफल करने के लिए जो नवीनतम तर्क दिया गया है, वह बहुत ही अजीब है. उनका तर्क है कि अंतर अंशदान की बकाया राशि को ब्याज सहित अब भेजकर वास्तविक वेतन के आधार पर पेंशन प्राप्त करने का प्रावधान उन ईपीएस सदस्यों के हित के लिए हानिकारक है, जिन्होंने शुरू से ही वास्तविक वेतन के आधार पर योजना में अपना देय योगदान जमा किया था.
इसके साथ वे योजना में उन अवैध संशोधनों को पवित्र करने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने कड़े विरोध के साथ खारिज कर दिया था. 2016 की एसएलपी में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से ईपीएफओ को निर्देश दिया है कि पेंशनभोगियों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित करने की प्रतिबंधात्मक शर्तों को लागू करने, वैधानिक विकल्प जमा करने की कट ऑफ तारीख, आदि के कारण सौहार्दपूर्ण कर्मचारी कल्याण के अनुकूल ईपीएस-95 को कर्मचारी विरोधी न बनाया जाए.
ईपीएफओ की अंधाधुंध शर्तें अवैध
कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के बाद या सेवानिवृत्ति के समय निर्धारित ब्याज के साथ उनके वास्तविक वेतन के आधार पर बकाया योगदान के लिए ईपीएफओ को बड़ी राशि का भुगतान करने के लिए मजबूर किया गया था, क्योंकि पेंशन योग्य वेतन के लिए उच्चतम सीमा लागू करने के लिए विकल्प जमा करने की कट ऑफ तारीख और पूर्ण वेतन योगदान आदि की शर्तें थीं. यह तब हुआ जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने स्पष्ट किया कि ये अंधाधुंध शर्तें अवैध हैं कि ईपीएस सदस्यों को ईपीएस-95 में इस तरह के एकमुश्त बकाया योगदान करने के लिए कहा जाए. यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार ही है, जिसके तहत सेवानिवृत्त और सेवारत EPS-95 सदस्य दोनों अपने वास्तविक वेतन के आधार पर ईपीएफओ को अपना योगदान देते हैं.
यह अजीब लगता है कि ईपीएफओ की अवैध कार्रवाई से बनी यह स्थिति उन लोगों के हितों के लिए ही हानिकारक है, जिन्होंने बिना किसी वैधानिक सीमा के अपने वेतन के आधार पर ईपीएस-95 में अपना योगदान दिया. साथ हर्र ईपीएफओ इस तथ्य को भी छिपा रहा है कि योजना में 2014 के संशोधनों ने 15,000/- रुपए से अधिक मासिक वेतन पाने वालों को इस मामूली पेंशन लाभ से भी वंचित कर दिया है.
भ्रामक तर्क देकर अदालत को गुमराह किया
पिछले दिनों, केरल हाईकोर्ट की एक खंडपीठ अपने फैसले के कारण ईपीएफओ पर पड़ने वाले बोझ के बारे में ईपीएफओ की रिट अपील हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ को अग्रसारित किया था. इसमें ईपीएफओ ने भ्रामक तर्क देकर अदालत को गुमराह किया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा निर्देशित वास्तविक वेतन के अनुपात में पेंशन के लाभ का विस्तार, उन पेंशनभोगियों के हितों को हानिकारक रूप से प्रभावित करेगा, जिन्होंने शुरू से ही अपने वास्तविक वेतन के आधार पर अपना योगदान दिया था. ईपीएफओ का यह बेतुका और भ्रामक तर्क पेंशनभोगियों के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण गतिरोध पैदा करने वाला बन गया.
सुनवाई टाल कर सरकार और ईपीएफओ को राहत देने की कोशिश
इसी के बाद ईपीएफओ और सरकार रिव्यू पिटीशन और एसएलपी के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट को भी अटार्नी जनरल के माध्यम से ऐसी पट्टी पढ़ाई गई कि पिछले दो वर्षों से अधिक समय से प्रत्येक महीने मामले की सुनवाई की तिथि की घोषणा तो होती है, लेकिन होती नहीं है. अभी भी यही स्थिति है. साफ है कि सरकार और ईपीएफओ का मनोवांछित फैसला इस मामले में दे पाना कठिन हो गया है. संभवतः इसीलिए सुनवाई टाल कर ही सरकार और ईपीएफओ को राहत देने की कोशिश की जा रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं निरूपित किया है, “न्याय में विलम्ब, न्याय से वंचित करता है.” लेकिन फिर भी जीवन की शाम के समय में लाखों पेंशनर न्याय की आश लिए देश की सर्वोच्च अदालत के भरोसे जी रहे हैं. अनेक इसी भरोसे के साथ सरकार और ईपीएफओ के क्रूर चालों के कारण जान गवां भी चुके हैं.
घोर अन्याय, क्रूर और बेपरवाह
इन वरिष्ठ नागरिकों के साथ किए जा रहे घोर अन्याय के प्रति सरकार और ईपीएफओ को इतना क्रूर या बेपरवाह नहीं होना चाहिए. कम से कम इतने विलंब और अंतिम चरण में, गिद्ध की भूमिका छोड़ केंद्र सरकार को 2016 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और 2018 के केरल उच्च न्यायालय के फैसले के निर्देशों के अनुसार अधिसूचनाओं में आवश्यक संशोधनों को अधिसूचित करने के लिए आगे आना चाहिए. यह समय की जरूरत है कि न केवल ईपीएफ पेंशन जीवियों के लिए, बल्कि करोड़ों ईपीएफ सदस्यों के हित में जल्द से जल्द अनुकूल निर्णय लिया जाए.
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