बाजार की अपेक्षाओं पर एक नजर
कमल शर्मा
जयपुर : शेयर बाजार और कमोडिटी बाजार में नई सरकार को लेकर भारी उत्सुकता बनी हुई थी. चूंकि अब लोकसभा चुनाव-2019 के नतीजे अब कुछ ही घंटों में सामने आ जाएंगे और नतीजे देश की आम जनता की इच्छा के अनुूरूप ही होने वाले हैं. रुझानों से साफ है कि जनता कमजोर विपक्ष के आरोपों से प्रभावित हुए बिना उन्हें नकारते हुए शासन की बागडोर फिर एनडीए को ही सौंपने जा रही है. उसे नरेंद्र मोदी के ही हाथों देश ज्यादा सुरक्षित दिखाई दे रहा है.
एग्जिट पोल से ही उफना बाजार पर कमोडिटी रहा ढीला
चुनाव के नतीजों से पहले एक्जिट पोल भी वैसे ही थे. उसका सीधा और गहरा असर शेयर बाजार पर देखने को मिला. बीता सोमवार 20 मई शेयर बाजार के लिए दस साल की सबसे बड़ी बढ़त वाला दिन रहा, लेकिन कमोडिटी बाजार को खासी निराशा झेलनी पड़ी. आज जब वोटों की गिनती के दौरान भी तब भी शेयर बाजार ने फिर नई ऊंचाई को छूआ और निफ्टी 12 हजार अंक एवं सेंसेक्स 40 हजार अंक के आंकड़ों को पार कर गया. लेकिन फिर इसके विपरीत कमोडिटी बाजार ही उदास रहा.
बेलगाम नहीं होने दिया कमोडिटी बाजार को
कमोडिटी बाजार के उदास रहने की अनेक वजहें हैं. भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने जब 2014 में दिल्ली की कमान संभाली, तभी से कमोडिटी बाजार में तेज उथल पुथल देखने को मिली. नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्य मंत्री थे तो उन्होंने कई बार कमोडिटी वायदा एक्सचेंजों को बंद करने की हिमायत की थी. पांच साल के शासन में ये एक्सचेंज बंद नहीं हुए, लेकिन सट्टे की बड़ी तेजी भी इनमें देखने को नहीं मिली. सरकार ने महंगाई दर को नियंत्रण में रखने के लिए कमोडिटी बाजारों को बेलगाम नहीं होने दिया. जबकि, दूसरी ओर, शेयर बाजार में तेजी का जो दौर शुरू हुआ, वह आज तक थमा नहीं. अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर शेयर बाजार को माना जाता है. कमोडिटी बाजार का साइज कितना भी बड़ा हो जाए, लेकिन अभी यह बैरोमीटर बनता दिखाई नहीं दे रहा.
कड़वी दवा बनी नोटबंदी और जीएसटी
मोदी सरकार ने महंगाई दर को काबू में रखने के साथ अर्थव्यस्था में अनेक सुधारों की शुरुआत की जो जल्दी से पचने वाले नहीं थे. नोटबंदी और जीएसटी को लागू करना सबसे कड़वी दवा साबित हुई, लेकिन जब हम बात करते हैं कि हम दुनिया में आर्थिक सुपर पावर बनना चाहते हैं तो हमें अपनी अर्थव्यस्था को पूरी तरह दो नंबर की व्यवस्था से निकालना होगा. सरकार के इन दो कदमों को खूब विरोध भी हुआ, लेकिन ताजा चुनाव नतीजे यह साफ बताते हैं कि पांच साल में अर्थव्यवस्था से जिन दीमकों को साफ करने के कदम उठाए, जनता ने उनका भरपूर स्वागत किया है.
कृषि नीति एवं निर्यात-आयात नीति पर रहेगी नजर
अब कमोडिटी बाजार में मुख्य भूमिका इस बात की होगी कि एनडीए सरकार की कृषि नीति एवं निर्यात-आयात नीति कैसी रहती है. इस सरकार के पिछले कार्यकाल के पहले चार साल में नीतियां उतनी स्पष्ट नहीं थी, जिसकी वजह से न तो किसान को खेती बाडी में फायदा हुआ और न ही कारेाबारी पैसा कमा सके. हालांकि, कार्यकाल के अंतिम वर्ष में किसानों के हित में अनेक कदम उठाए गए, जिसके अच्छे नतीजे अब देखने को मिलेंगे.
दहलन का देश में उत्पादन अधिक होने के बावजूद आयात एकदम फ्री था, जिसकी वजह दो साल बाद दलहन के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊपर उठ पा रहे हैं. लेकिन इसमें मुख्य योगदान आयात को नियंत्रित करने का है. एक समय देश में तकरीबन 55-60 लाख टन दलहन का आयात हो रहा था, जो अब जाकर छह लाख टन के आसपास नियंत्रित किया गया है.
तुअर के भाव बढ़ने का चला शोर
अब यह हल्ला फिर मचने लगा है कि तुअर दाल 100 रुपए प्रति किलोग्राम के आसपास बिक रही है. जबकि यह समझना होगा कि तुअर का न्यूनतम समर्थन मूल्य ही 56 रुपए प्रति किलोग्राम से ऊपर है तो दाल बनने पर आने वाला खर्च जोड़ने के बाद इसकी लागत ही 90 रुपए आती है तो रिटेल काउंटर पर 100 रुपए प्रति किलो दाल बिकना वाजिब है.
आयात डयूटी में अस्थिरता से हलाकान रहे घरेलू उद्योग
लेकिन घरेलू खाद्य तेल इंडस्ट्री आयातित तेलों को घरेलू तेलों में मिलाकर बेचने या आयातित तेलों को रिपैक कर बेचने तक रह गई है. तिलहन पैदा करने वाले किसानों को सोयाबीन, सरसों में वैसा रिटर्न नहीं मिल पाया, जैसा वे चाहते थे. खाद्य तेलों की आयात डयूटी में कभी इजाफा और कभी कमी ने घरेलू उद्योग को अपने हालात सुधारने का मौका नहीं दिया. गेहूं के दाम नीचे नहीं आ जाए, इस भय से सरकार ने आयात शुल्क को 30 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी कर दिया है, जिसे अच्छा कदम कहा जा सकता है. लेकिन मक्का के भाव बढ़ते ही आयात की अनुमति देने से किसान एवं घरेलू कारोबारी थोड़े निराश हुए हैं.
भारत अनेक कमोडिटी के निर्यात में मोनोपोली रखने की स्थिति में है, जिनमें ग्वार गम, कैस्टर ऑयल, जीरा, ईसबगोल जैसी अनेक कमोडिटी हैं. लेकिन हमारे बाजार सरकारी नीतियों के अलावा डॉलर-रुपया इंडेक्स से खूब प्रभावित होता है.
रुपए मजबूत हुआ तो…
नई सरकार के आगमन के साथ माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में रुपया 68 तक पहुंच सकता है. यदि रुपया मजबूत होता है तो इसका कमोडटी बाजारों पर नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेगा. कमोडिटी बाजार का बेहतर भविष्य इस पर निर्भर होगा कि भारतीय रुपए के अमेरिकी डॉलर के सामने कैसी चाल रहती है एवं सरकार कृषि सेक्टर के लिए अपनी नीतियों को कैसा गढ़ती है एवं कितना स्थायीत्व देती है. उम्मीद यही है कि नया सूरज है, नई सरकार है जो कृषि कमोडिटी बाजार के अच्छे दिन लौटाने के लिए प्रतिबद्ध रहेगी.