गरीबी

तो क्या दूर हो जाएगी गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी..?

विचार विशेष
Share this article

जाति, स्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर और धार्मिक भेदभाव में लिप्त भारतीय समाज आज भी गरीबी एवं पिछड़ेपन की मूल समस्या से जूझ रहा है. आरक्षण की व्यवस्था उनके लिए की गई थी जो पीछे रह गए या जिन लोगों को जाति की बेड़ियों में जकड़ रखा गया था. जिसके कारण उनके आगे बढ़ पाने का मार्ग अवरुद्ध हो गया था. आरक्षण की इतने सालों की व्यवस्था से वह बेड़ियां बहुत हद तक टूट भी चुकी हैं. फिर भी, आर्थिक व सामाजिक समानता के लिए उनमें नेतृत्व-निर्माण और क्षमता-विस्तार की जरूरत अभी भी है. लेकिन आज गरीबी का समाधान आरक्षण में तलाशा जा रहा है. जब कि आज रोजगार के अधिकार से युवाओं को लैस करने की जरूरत है, आरक्षण से नहीं.

*कल्याण कुमार सिन्हा-
गरीब सवर्णों को आरक्षण देने पर सुप्रीम कोर्ट ने न केवल मुहर लगाई है. इस फैसले से सिर्फ सामाजिक और शैक्षिक नहीं, आर्थिक पिछड़ापन भी आरक्षण का आधार बन गया है. लेकिन क्या इससे अब रोजगार और नियोजन के समग्र आधिकारिक स्वरूप में भी बदलाव संभव हो पाएगा? प्रश्न बड़ा है और आरक्षण की संवैधानिकता की मूल भावना से जुड़ा है.

ईडब्लूएस आरक्षण के साथ केंद्रीय संस्थानों में आरक्षण की कुल सीमा 60 प्रतिशत पहुंच गई है. सुनवाई के दौरान केंद्र की इस दलील से कि अधिकतम आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा इतना भी ‘पवित्र’ नहीं है कि उसका उल्लंघन ही न हो सके, सहमति जताते हुए संविधान पीठ के पांच में से तीन जजों ने अपनी-अपनी तरफ से दलीलें भी रेखांकित की हैं. इस सीमोल्लंघन के साथ अब आरक्षण को लेकर उठने वाली मांगों का अंतहीन सिलसिला भी शुरू होने वाला दिखाई देने लगा है.

ईडब्लूएस आरक्षण के पक्ष में जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने कहा- “आरक्षण गैरबराबरी को बराबरी पर लाने का लक्ष्य हासिल करने का एक औजार है. इसके लिए न सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है, बल्कि किसी और कमजोर वर्ग को भी शामिल किया जा सकता है.”

इसी तरह जस्टिस जे.बी. परदीवाला ने कहा कि बहुमत के विचारों से सहमत होकर और संशोधन की वैधता को बरकरार रखते हुए, मैं कहता हूं कि आरक्षण आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का एक साधन है और इसमें निहित स्वार्थ की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. इस कारण को मिटाने की यह कवायद आजादी के बाद शुरू हुई और अब भी जारी है.

समर्थन का स्वर देते हुए जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने कहा कि अगर राज्य इसे सही ठहरा सकता है तो उसे भेदभावपूर्ण नहीं माना जा सकता. ईडब्ल्यूएस आरक्षण नागरिकों की उन्नति के लिए सकारात्मक कार्रवाई के रूप में संशोधन की आवश्यकता है. असमानों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता. एसईबीसी (SEBC – सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग) अलग श्रेणियां बनाता है. अनारक्षित श्रेणी के बराबर नहीं माना जा सकता. ईडब्ल्यूएस के तहत लाभ को भेदभावपूर्ण नहीं कहा जा सकता.

हालांकि, यह महत्वपूर्ण फैसला सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त तीन जजों के बहुमत से किया है. लेकिन प्रधान न्यायाधीश (अब पूर्व) यू.यू. ललित और न्यायमूर्ति एस. रवींद्र ने इस आरक्षण के खिलाफ मत देते हुए इसे अवैध और भेदभावपूर्ण करार दिया है. आरक्षण के विरुद्ध निर्णय सुनाने वाले जस्टिस रविंद्र भट्ट ने कहा, “103वां संशोधन संवैधानिक रूप से निषिद्ध भेदभाव को बढ़ावा देता है. ये समानता पर गहरा आघात है. आरक्षण के लिए तय 50 फीसदी की सीमा में दखल विभाजन को बढ़ाएगा.” प्रधान न्यायाधीश जस्टिस ललित भी इस राय से सहमत दिखे.

लेकिन फैसले में सहमति या असहमति से वास्तविक समस्या का क्या कोई मार्ग मिल पाया? कुल मिला कर यह फैसला भले ही ईडब्ल्यूएस आरक्षण के सरकारी प्रावधान को चुनौती देने वाली 40 याचिकाओं को खारिज कर चुका है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इससे आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों की बेरोजगारी और गरीबी की समस्या दूर हो जाएंगी? बड़ा सवाल यह भी है कि 70 सालों से भारत के संविधान के तहत अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों को शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 50 फीसदी का जो आरक्षण चल रहा है, क्या इससे अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए रोजगार की समस्या दूर हो पाईं? उनके शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति में यथोचित सुधार हो पाया?

आजादी के 70 साल बीत गए. भारत के संविधान के तहत आरक्षण की यह व्यवस्था आज मात्र राजनीति का एक मोहरा बन कर रह गया है. वोट बैंक की राजनीति देश में बेरोजगारी के साथ गरीबी और पिछड़ापन हमारी आबादी के साथ बढ़ाती जा रही है. और हम इस मूल समस्या के निवारण के लिए कदम उठाने के बजाए आरक्षण की डुगडुगी पीटने में व्यस्त हैं.

जाति, स्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर और धार्मिक भेदभाव में लिप्त भारतीय समाज आज भी गरीबी एवं पिछड़ेपन की मूल समस्या से जूझ रहा है. आरक्षण की व्यवस्था उनके लिए की गई थी जो पीछे रह गए या जिन लोगों को जाति की बेड़ियों में जकड़ रखा गया था. जिसके कारण उनके आगे बढ़ पाने का मार्ग अवरुद्ध हो गया था. आरक्षण की इतने सालों की व्यवस्था से वह बेड़ियां बहुत हद तक टूट भी चुकी हैं. फिर भी, आर्थिक व सामाजिक समानता के लिए उनमें नेतृत्व-निर्माण और क्षमता-विस्तार की जरूरत अभी भी है. लेकिन आज गरीबी का समाधान आरक्षण में तलाशा जा रहा है. जब कि आज रोजगार के अधिकार से युवाओं को लैस करने की जरूरत है, आरक्षण से नहीं.

देश की अब तक की सरकारें गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी को दूर करने के कदम उठाने की आज तक कोई ईमानदार कोशिश नहीं कर सकी हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में प्रतिवर्ष 20 से 25 लाख सरकारी नौकरियां सृजित की जा सकती हैं. लेकिन रोजगार की मांग हर वर्ष लगभग 1.5 करोड़ की रहती है. सवा करोड़ का हर वर्ष का अंतर क्या 50 फीसदी के साथ अब और 10 फीसदी बढ़ जाने से मिट जाएगा?

संविधान के अनुसार सामाजिक व शैक्षणिक रूप से कमजोर के लिए आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए. लेकिन सरकारें इस 50 फीसदी आरक्षण के कोटे से प्रति वर्ष निर्धारित नौकरियां भी मुहैया करा पाने में भी विफल रही हैं. निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण का कोई प्रावधान ही नहीं है. सरकार निजी क्षेत्र पर नौकरियों में आरक्षण देने का दबाव बना नहीं सकतीं. ऐसे में करोड़ से ऊपर की संख्या में श्रम बाजार में उतरने वाले युवाओं का भविष्य अंधकारमय ही बना रहता है. बेरोजगारी का साल दर साल बढ़ता आंकड़ा गरीबी और आर्थिक पिछड़ेपन को ही बढ़ाता जा रहा है.

ऐसे में सवाल गलत नहीं है कि जो युवा आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं, सरकारी नौकरियों से वंचित क्यों रहें? लेकिन यह भी तथ्य है कि 10 फीसदी आरक्षण से भी इस वर्ग की बेरोजगारी दूर नहीं हो पाएंगी. स्थिति यह है कि देश के करीब 60 फीसदी लोग आज भी आर्थिक विपन्नता के कारण सरकार से खाद्यान्न की उम्मीद लगाए बैठे हैं. ऐसे में आरक्षण पर निर्भरता न तो ऐसे युवा वर्ग के लिए सही है और न सरकार के लिए आरक्षण का झुनझुना बजाना नैतिक कहा जा सकता है.

बेरोजगारी, गरीबी और आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ापन दूर करने के लिए एक ‘समग्र नौकरी नीति’ की जरूरत है. जिसमें सबसे पहले आरक्षण की व्यवस्था उनके लिए होनी चाहिए, जो दिव्यांग हैं, या घर में कमाने वाला अशक्त हो गया हो अथवा उसकी मृत्यु हो चुकी हो, इसके अलावा नैसर्गिक आपदाओं से जूझने वाले लोगों को और उन्हें, जो जरूरतमंद अनुसूचित जाति, जन जाति, अति पिछड़ा या पीड़ित अल्पसंख्यक हैं.

इसके अलावा सरकार को स्वरोजगार के लिए युवाओं को अपने प्रशिक्षण नीति में भी सुधार करने की भी जरूरत है. जिसमें अनुसूचित जाति, जन जाति और पिछड़ा वर्ग के साथ आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के युवाओं को सामान रूप से प्रशिक्षण पाने और अपना रोजगार शुरू करने का अवसर मिले. सरकार की स्टार्टअप की नीति को निचले स्तर तक तेजी से लाने और प्रेरित करने की जरूरत है.

आरक्षण का झुनझुना गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी से देश को निजात नहीं दिला सकती. सरकार को वोटबैंक की राजनीति से ऊपर उठकर काम करना होगा. समग्र नौकरी नीति और निचले स्तर तक स्टार्टअप लाने से ही समस्या कम हो सकती है. स्टार्टअप मतलब व्यवसाय, और व्यवसाय परिवार की विरासत बनती जाती है. ऐसे में भारी संख्या में युवाओं को विरासत में ही रोजगार प्राप्त हो जाता है. प्रशिक्षित युवा समय के अनुसार व्यवसाय को बढ़ा कर अन्य युवाओं के लिए भी अवसर प्रदान करने में सक्षम होते हैं. इससे रोजगार के साथ साथ नौकरी के अवसर भी बनते चले जाएंगे. सरकारी स्तर पर इस दिशा में तेजी से बड़े पैमाने पर कार्यक्रम तैयार कर उसे लागू करने की जरूरत है.

गरीबी
कल्याण कुमार सिन्हा.

Leave a Reply