‘समन्वय’ मंत्र है हिंदी सहित सभी 22 राजभाषाओं की समृद्धि का

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समन्वय

भाषा और शब्दों की शक्ति एवं श्रेष्ठता पहचानने की जरूरत

*कल्याण कुमार सिन्हा-

आजादी के 75 साल हो चुके, फिर भी राष्ट्रभाषा हिंदी के साथ देश की अन्य सभी भाषाएं समुचित प्रतिष्ठा पाने से वंचित हैं. हमारे देश की भाषा और संस्कृति, उनकी विविधताएं एक उस सुन्दर बाग की तरह हैं, जिसमें रंग-बिरंगे और विविध प्रजातियों के पुष्प अपनी खुशबू और सौंदर्य की आभा बिखेरती हैं. हमारी भाषाओं की इस बगिया में हिंदी, असमिया, बांग्ला, गुजराती, संस्कृत, पंजाबी, उड़िया, मराठी, मलयालम, कश्मीरी, कन्नड़, तेलुगु, उर्दू, तमिल, सिंधी, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली के पुष्प सरीखे मधुर स्वरों की राग-रागिनियां गुंजायमान हैं. लेकिन इसके चारों ओर एक ऊंची दीवार खड़ी है, यह दीवार अंगरेजी की है. अंग्रेजी से कोई गुरेज नहीं. लेकिन इसे बाग का हिस्सा नहीं, दीवार बना दिया गया है.

भाषाएं संवाद की माध्यम होती हैं, ये सामाजिक-आर्थिक विकास की भी संवाहक हैं. इनमें समाज और संस्कृतियों को निकट लाने और उनमें एकात्मता के भाव भरने की भी अद्भुत शक्ति भी है. इनकी इस शक्ति को विकास एवं सामाजिक समन्वय के अन्य घटकों अथवा कारकों से कम नहीं आंका जा सकता. भारतीय समाज की अनेक विशेषताओं में यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि हमारा यह समाज बहुभाषिक भी है. किंतु अपनी भाषाओं की इस ताकत का सदुपयोग हम नहीं कर पाए हैं.

यह तथ्य है कि समर्थकों की ताकतवर लॉबी होने और पिछले सवा सौ वर्षो से सत्ता का समर्थन प्राप्त होने के बावजूद अंग्रेजी आज तक हमारे देश में ‘सर्वव्यापी’ नहीं बन पाई. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी अथवा अन्य दूसरी भारतीय भाषा में भी सर्वव्यापकता एवं सर्वग्राह्यता का अभाव है.

भारतीय भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता की पहचान कर पाने में हमारी विफलता भी हमारे विकास की गति को अवरुद्ध कर रहा है. साथ ही केंद्र और राज्यों के बीच भी संपर्क भाषा अंग्रेजी को बना दिए जाने से निजी क्षेत्र और वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में भी अंग्रेजी ही संपर्क भाषा बन गई है.

भाषा जितनी समृद्ध होती है, उसका समाज उतना ही सुसंस्कृत, गतिमान और शक्तिशाली होता है. भाषा की समृद्धि उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर होती है. भाषा जब अन्य भाषाओं के शब्द और गुणधर्म ग्रहण करती है, तभी वह सर्वसामान्य के लिए स्वीकार्य बनती है. इसमें सर्वव्यापकता के गुण भी आते हैं. ऐसी सर्वव्यापक भाषाएं ही समाज या राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग के साथ सफल संवाद स्थापित कराती हैं और समाज या राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लाभ तीव्र गति से सामान्य जन तक भी पहुंचाती हैं.

भाषा की सर्वव्यापकता, ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी है उदाहरण

भाषा की सर्वव्यापकता और ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी को इसका उदाहरण माना जा सकता है. समस्त यूरोपीय और एशियाई भाषाओं की शक्ति ग्रहण कर उसने अपने को इतना समृद्ध बनाया है कि आज वह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का वाहन बन विश्व भर में छा गई है और हमारे देश की अस्मिता पर कुंडली जमा कर बैठ गई है. यही कारण है, हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी समेत भारत की सभी 22 राजभाषाएं पंगु ही बनी हुई है. इससे देश की तीन-चौथाई जनता देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा पाने से अभी तक वंचित हैं. भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बनाने के लिए ‘भाषा समन्वय’ एक सशक्त मार्ग है.

इसके लिए हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के शब्दों को एक दूसरे को आत्मसात करने की जरूरत है. हिंदी की तरह अन्य भारतीय भाषाओं का उपयोग साहित्य लेखन के साथ दैनंदिन बोलचाल में बढ़ाने की जरूरत है. अलग-अलग राज्यों के हिन्दीभाषी बहुत हद तक उन राज्यों की भाषा के रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले शब्दों का उपयोग बोलचाल में तो कर लेते हैं, लेकिन लेखन में उनका उपयोग करने से बचते हैं. इस भाषायी समन्वय को स्वाभाविक रूप से तेज करने और अपने-अपने शब्दकोश में उन्हें निःसंकोच शामिल करने की जरूरत है. भाषा समन्वय की यह अवधारणा देश की संस्कृति को गतिमान बनाने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करने में सहायक होगी.

समन्वय : क्या यह संभव नहीं है?

हमारा विश्वास है कि यह संभव है और ऐसा हो सकता है. जरूरत होगी- एक साधारण सी ईमानदार कोशिश की. आखिर स्वयं हिंदी भी और उर्दू भी- ऐसे ही समन्वय की ही तो उपज हैं. हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाएं इसी समन्वय की प्रक्रिया का हिस्सा बना दी जाएं, अर्थात इनकी शक्ति के समन्वय का सुनियोजित प्रयास शुरू किया जाए तो ये सभी भाषाएं न केवल सर्वव्यापी और सर्वग्राह्य बन जाएंगी, बल्कि इस सद्प्रयास के कुछ अन्य ऐसे परिणाम भी सामने आएंगे, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को और अधिक मजबूत बनाएंगे, क्षेत्रीय असमानता दूर करने में सहायक होंगे और सभी प्रांतों के अलग अलग भाषा-भाषियों के बीच बेहतर संवाद भी स्थापित करेंगे. यह स्थितियां सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय को भी पुष्ट करेंगी. साथ ही व्यापार एवं व्यवसाय के विकास को भी तीव्र और स्वस्थ बनाएंगी.

समन्वय का आधार तैयार करने की जरूरत

भारत में हिंदी समेत 22 राजभाषाएं हैं, जिनका अपना समृद्ध साहित्य भंडार है. इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में हैं. भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक जैसी अनेक परिस्थितियां हैं, जिनके कारण ये सभी भाषाएं एक दूसरे के काफी करीब भी हैं. यदि इन सभी भाषाओं को एक दूसरे की शक्ति शब्दों के रूप में हासिल हो जाए तो यह सभी अपने आप समृद्ध हो ही जाएंगी. इनमें अंग्रेजी की तरह सर्वव्यापकता का गुणधर्म इनमें भी समा सकती है. तब यह अंग्रेजी का सशक्त विकल्प भी बन सकती हैं. लेकिन इसके लिए समन्वय का आधार तैयार करने की जरूरत है.

समन्वय की प्रक्रिया और दिशा क्या हो

अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय भाषाओं के समन्वय की प्रक्रिया और दिशा क्या हो, इसका मार्ग क्या हो? देश के बुद्धिजीवियों के लिए भाषायी समन्वय की प्रक्रिया, दिशा और मार्ग ढूंढ़ना और निर्धारित करना एक चुनौती है. इसके लिए‘विचार मंथन’ आरंभ करना जरूरी हो गया है. इस दिशा में सोचने की प्रक्रिया आरंभ होते ही जल्द ही कोई सुगम मार्ग भी निकल सकता है. भाषाओं के समन्वय का यह कार्य निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति कर सकेगा-

भाषाओं के समन्वय के संभावित परिणाम

  • 1. सभी भारतीय भाषाएं और अधिक समृद्ध होंगी, क्योंकि एक दूसरे का गुणधर्म और शब्दों को अपनाएंगी. इससे यह सभी सर्वव्यापक और सर्वग्राह्य बन सकेंगी,
  • 2. देश के अलग-अलग प्रांतों के भाषा-भाषी मौजूदा संवादहीनता की स्थिति से उबर सकेंगे और भाषायी विद्वेष की भावना समाप्त होगी,
  • 3. देश में एकात्मता की भावना सुदृढ़ होगी, सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा और संस्कृति एवं परंपराओं का भी बेहतर समन्वय हो सकेगा,
  • 4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता दूर करने में मदद मिलेगी और आर्थिक-सामाजिक व्यवहार में पैदा हो रही अड़चन समाप्त होंगी. इससे देश का आर्थिक विकास तीव्र होगा एवं
  • 5. भाषायी अवरोध के कारण आर्थिक उपलब्धियों के न्यायपूर्ण बंटवारे में जो व्यवधान होता है, वह समाप्त होगा. ये उपलब्धियां सभी समाज के निचले स्तर तक पहुंचेगी और व्यवसाय एवं व्यापार का दायरा बढ़ेगा.

समन्वय की दिशा, प्रक्रिया और मार्ग की पड़ताल

एक विचारणीय प्रारूप यह भी है-

  • 1. राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार ‘राष्ट्रीय भाषा समन्वय आयोग’ का गठन करे, जो राष्ट्रीय स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं के सामान्य व्यवहार के शब्दों का मानकीकरण कर दे और इन शब्दों को सभी भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त करने को बढ़ावा दे. दूरदर्शन एवं अन्य जनसंचार माध्यम के इसमें सहायक बन सकते हैं.
  • 2. सभी राज्य सरकारें भी ‘राज्य भाषा समन्वय आयोग’ का गठन कर ‘भाषायी समन्वय’ के कार्य को गति प्रदान करें. राज्य सरकारें अपने पड़ोसी राज्यों की भाषाओं के साथ तालमेल बिठाने की प्रक्रिया को तीव्र बना सकती हैं.
  • 3. देश के सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता के लिए भाषाओं के समन्वय के महत्व को ध्यान में रख कर अपनी भाषा नीति में ‘भारतीय भाषाओं के समन्वय’ की अवधारणा को शामिल करें.
  • 4. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार, पत्रकार एवं अन्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी अपनी भाषा समृद्ध बनाने और दूसरी भाषाओं से आत्मिक संबंध बढ़ाने के उद्देश्य से अपनी-अपनी रचनाओं में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों, मुहावरों, कहावतों आदि को उदारता से स्थाना देना आरंभ करें एवं
  • 5. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं अन्य संगठन भी भारतीय भाषाओं के समन्वय की दृष्टि से अपनी भाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को उदारतापूर्वक बढ़ावा दें.

हिन्दी सहित हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं में विपुल साहित्य रचे गए हैं. हमारे लेखकों, चिंतकों और कलाकारों ने अपनी मौलिक रचनाओं, अनुवादों, फिल्मों तथा रंगमंचों से सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया है. लेकिन यह सारी उपलब्धियां अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को कोई विशेष स्थान नहीं दिला पाया है.

अभी भी समय है कि हम हिंदी समेत अपने देश की अन्य भाषाओं को जोड़ने की दिशा में गंभीरता से प्रयास करें और इन्हें समृद्ध बना कर अपनी सौ करोड़ की आबादी के स्वर को विश्व मंच पर शक्तिशाली बनाएं.

अन्य भारतीय भाषाओं के विकास तथा समन्वय के संदर्भ में न केवल शासकीय स्तर पर बल्कि जनसामान्य के स्तर पर भी संवादहीनता जैसी स्थिति है. यह स्थिति हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए घातक तो है ही, हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास का भी अवरोधक है. भाषा समन्वय की अवधारणा सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बना कर देश की एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करेगी. साथ ही अंग्रेजी का बेहतर विकल्प भी बन सकेंगी.

-कल्याण कुमार सिन्हा.

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