कृषि कानूनों की वापसी महज राजनीतिक निराशा तो नहीं…

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कृषि कानूनों

*कल्याण कुमार सिन्हा-
विश्लेषण : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शुक्रवार को तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की अप्रत्याशित घोषणा महज राजनीतिक निराशा का परिणाम तो नहीं है..! हालांकि इस घोषणा में राजनीति के मुकाबले लोकनीति का पलड़ा एक बार फिर भारी नजर आया है. स्वतन्त्र भारत में अब तक का यह 37वां सफल आंदोलन है. जयप्रकाश आंदोलन के बाद यह दूसरा लंबा चलने वाला आंदोलन है.  

प्रधानमंत्री ने इन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ अपनी निराशा का इजहार किया है, उनका कहना कि ‘हमारी सरकार, किसानों के कल्याण के लिए, खासकर छोटे किसानों के कल्याण के लिए, देश के कृषि जगत के हित में, देश के हित में, गांव गरीब के उज्जवल भविष्य के लिए, पूरी सत्य निष्ठा से, किसानों के प्रति समर्पण भाव से, नेक नीयत से ये कानून लेकर आई थी. लेकिन इतनी पवित्र बात, पूर्ण रूप से शुद्ध, किसानों के हित की बात, हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाए.’… उनकी निराशा ही दर्शाती है.

इस घोषणा से आंदोलनकारियों के हौसले और बढ़े हैं. आंदोलन समाप्त कर अपने घर लौटने की प्रधानमंत्री की अपील भी उन्होंने ठुकरा दिया है. किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि जब तक उनकी बाकी मांगों पर सरकार अपना रुख स्पष्ट नहीं करती, संसद में इन कृषि कानूनों की वापसी की औपचारिकता पूरी नहीं होती और एमएसपी पर गारंटी देने का कानून नहीं बनाती है, तब तक वे वापस जाने वाले नहीं हैं.

26 नवंबर 2020 को दिल्ली कूच के साथ शुरू किया गया यह किसान आंदोलन सफलतापूर्वक एक साल पूरे करने जा रहा है. जयप्रकाश आंदोलन के बाद अब तक का सबसे लंबा चलने वाले इस किसान आंदोलन ने सरकार को झुकाने के लिए मजबूर कर अपनी पहली लड़ाई जीत ली है. इसके बावजूद एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने और संसद से इन कानूनों की औपचारिकता पूरी होने तक डटे रहने का उन्होंने ऐलान कर दिया है. पंजाब और हरियाणा के इन किसानों के साथ उत्तर प्रदेश के किसानों इस आंदोलन से उपजी नाराजगी ने सरकार और भारतीय जनता पार्टी को सोचने पर विवश किया है.

26 नवंबर को भारत के वर्तमान ऐतिहासिक किसान आंदोलन को शुरू हुए एक वर्ष होने जा रहा है. पिछले वर्ष 26 नवंबर 2020 को जब किसान दिल्ली चले थे, तो उन्हें पता नहीं था कि उन्हें एक वर्ष तक दिल्ली की सीमा और सड़क पर रहकर लड़ना पड़ेगा. फिर भी उन्हें पता था कि यह लड़ाई इतनी छोटी भी नहीं है. इसलिए उन्होंने ट्रॉलियों में एक माह का राशन, बर्तन, ईंधन और बिस्तर साथ लेकर निकल पड़े थे.

हालांकि पंजाब और हरियाणा के किसानों के सिंघु और टिकरी बॉर्डर मोर्चों ने इस आंदोलन की रीढ़ का काम किया है. लेकिन आंदोलन के इस एक वर्ष के दौरान 27 जनवरी 2021 को गाजीपुर बॉर्डर और 3 अक्टूबर 2021 को लखीमपुर खीरी में सत्ता की साजिशों से इस आंदोलन पर किए गए दो बड़े हमलों का मजबूत प्रतिकार कर इसे बचाए रखने में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के किसानों के पड़ाव गाजीपुर मोर्चे की भी बड़ी भूमिका रही है. जिन लोगों ने इसे नजदीक से देखा और महसूस किया है, उन्हें आजादी की लड़ाई में 90 वर्षों तक अनवरत लड़ने वाले भारत के किसानों, आदिवासियों और मजदूरों की संकल्प शक्ति प्रत्यक्ष दर्शन हुआ होगा.

यह आंदोलन 362 दिनों से चल रहा है. लगभग सात सौ किसानों ने इस दौरान प्राण गंवाए. बावजूद इसके किसानों के अंदर हर रोज लड़ने के लिए नया उत्साह पैदा करता रहा. किसान महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पंजाब के किसान नेता रुलदू सिंह मानसा ने टिकरी बॉर्डर के मोर्चे से अपने संबोधन में एक दिन किसानों से कहा, ‘किसान वीरों! मैंने पंजाब में किसानों से कह दिया है कि फूलों के हार तैयार रखें. अगर हम जीत कर आएं तो हार हमारे गले में डाल देना. और अगर हम शहीद हो कर आएं तो हार हमारी लाश पर डाल देना. हम सिर्फ इन्हीं दो हालातों में लौटेंगे.’

जंग जीतने के लिए फौज के पास दो चीजें जरूरी होती है- पहला खाने को राशन, जो किसानों ने जरूरत से ज्यादा जमा रखा. दूसरा वह हथियार, जो आंदोलन में शामिल पांच सौ से ज्यादा किसान संगठनों के झंडों की शक्ल में मौजूद रहे. जैसा कि गुरु नानकदेव जी के पहला लंगर, आज 450 वर्ष बाद भी पूरी दुनिया के पीड़ितों, भूखों को खिलाने के बाद चल रहा है, वैसे ही किसानों के इस आंदोलन में लाए गए एक माह के राशन का लंगर लाखों लोगों को खिलाने के बाद भी अनवरत जारी है. प्रधानमंत्री मोदी को देश के किसानों की संकल्प शक्ति का परिचय मिल गया होगा. जिस कारण उन्होंने एक वर्ष से आंदोलनरत किसानों की आवाज के आगे झुकना कबूल कर लिया.

गणतंत्र दिवस के मौके पर इसी साल 26 जनवरी को किसानों के ट्रैक्टर मार्च के दौरान देश की राजधानी दिल्ली में हिंसा, आंदोलन स्थल पर बंगाल की एक युवती की रेप के बाद हत्या और किसान नेता द्वारा इस पर पर्दा डालने की कोशिश और पंजाब के एक दलित लखबीर सिंह के साथ तालिबानी बर्बरता की शर्मनाक और दास्तानों ने आंदोलन की पवित्रता पर सवाल भी खड़े किए. इसके अलावा अनेक बार किसान सभाओं और प्रदर्शनों में प्रमुखता से खालिस्तानी तत्वों की मौजूदगी भी किसान आंदोलन पर देश को तोड़ने वाले तत्वों को बढ़ावा देने का शक पैदा करता रहा.    

आजादी के अमृत महोत्सव मनाने के दौरान गुरु नानकदेव के प्रकाश पर्व पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह ऐतिहासिक फैसला राष्ट्रहित में लिया गया फैसला भी कहा जा सकता है. इससे भारत विरोधी तत्वों द्वारा फायदा उठाने की कोशिशों को झटका लगा है. ऐसे तत्व समुदायों के बीच दरार पैदा कर देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल तैयार करने में जुट गए थे. साथ ही विदेशों में भी देश और सरकार दोनों की छवि बिगाड़ने का काम शुरू कर चुके थे.

कृषि कानूनों की वापसी का यह फैसला राजनेता के रूप में नरेंद्र मोदी की बड़ी जीत कही जाएगी. हालांकि, प्रधानमंत्री के रूप में अपने कृषि सुधारों पर अडिग नहीं रह पाने का ठप्पा लग ही रहा है, अहंकारी, तानाशाह, जिद्दी, अड़ियल और न जाने कितने अलंकरणों से भी उन्हें विभूषित किया जाने लगा है. वापसी की घोषणा से पूर्व ऐसा तो नहीं होगा कि उन्हें अपने बारे में ऐसी बातें कहे जाने का आभास नहीं रहा होगा. इससे उनकी सख्त निर्णय लेने वाले की छवि भी धूमिल होने की आशंका भी उन्हें जरूर हुई होगी. इसके बावजूद उन्होंने यदि यह फैसला लिया तो यह निश्चय ही साहसिक फैसला है. इससे न केवल उनकी व्यक्तिगत छवि एक उदार नेता के रूप में बनेगी. साथ ही इसमें पार्टी हित का पहलू भी शामिल है.

अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले गया यह एक बड़ा सियासी कदम हो सकता है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश में खासकर जाट समुदाय को अपने पाले में रखने के लिए इसकी जरूरत थी. पिछले चुनावों में जाट समुदाय ने लगभग एक होकर भाजपा के पक्ष में वोटिंग किया था. इस बार विधानसभा चुनाव में ये वोट विपक्ष के पाले में जाने की पूरी संभावना थी. इस फैसले के बाद अब जाट समुदाय फिर से भाजपा के साथ आ जाएगी. इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गैर मुस्लिम, गैर जाटव और गैर यादव एकमुश्त भाजपा के साथ आने की संभावना है.

पंजाब विधानसभा चुनाव में तो भाजपा के नेताओं को प्रचार करना भी नामुमकिन सा होने लगा था. उन पर हमले भी होने लगे थे. कृषि कानूनों की वापसी के फैसले के बाद स्थिति में बदल जाएगी. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भाजपा के साथ अब मिल कर काम करने की घोषणा भी कर दी है. इससे पंजाब में किसानों के बीच वे अपनी पैठ और बढ़ाएंगे और उनका भाजपा के साथ गठबंधन तय सा हो गया है. आनेवाले दिनों में हो सकता है कि अकाली दल भी भाजपा गठबंधन का हिस्सा बन जाए. ऐसे में शहरी, ग्रामीण और किसानों के बीच ये गठबंधन मजबूत दावेदार हो जाएगा.  

इस कदम से अब पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के जनाधार का छरण रुकेगा, इसमें कोई शक नहीं है. साथ ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी की सत्ता बरकरार रहना सुनिश्चित हो गया है. इसके साथ-साथ पंजाब में भी फिर से सत्तारूढ़ होने के द्वार भी खुले हैं.

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