अमानवीय निष्ठुरता के शिकार हो रहे 65 लाख से अधिक EPF पेंशनर्स 

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अमानवीय

*कल्याण  कुमार सिन्हा,
आलेख :
भारत सरकार का रवैया कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) से संबद्ध रिटायर्ड वयोवृद्धों के (न्यायोचित पेंशन पाने अधिकार के) साथ इतना क्रूर और अमानवीय भी हो सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. लेकिन यह एक नंगा सच है, जो देश की पहचान को कलंकित करने वाला है. इसमें वह सच्चाई है, जो यह दिखाता है कि देश के 65 लाख से भी कहीं अधिक वैसे EPF पेंशनर अपने न्यायपूर्ण अधिकार से वंचित हैं, अपने जीवन के अंतिम पल गिन रहे हैं. 

अपनी सरकार की ऐसी अमानवीय क्रूरता के बारे में जानकारी अधिसंख्य देशवासियों तक नहीं पहुंच सकी है. इसका मुख्य कारण है कि स्वयं लाखों की संख्या में होने के बावजूद निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र से सेवानिवृत्त हुए लोगों ने इसे अपनी नीयति मान लिया, उन्हें इस तथ्य का आभास ही नहीं कराया गया कि “पेंशन उनका अधिकार है, किसी की मेहरबानी नहीं, किसी की उदारता का परिणाम नहीं, यह कोई इनाम, उपहार अथवा दान नहीं है.” उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ कभी मुंह खोला ही नहीं. 
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EPF पेंशनर यही मानते रहे की यह सरकार की मेहरबानी है. परिणाम यह हुआ है कि भारत सरकार भी इन सेवानिवृत्त वरिष्ठ नागरिकों के प्रति अमानवीय निष्ठुरता की हद तक उदासीन बन गई है और भारत सरकार के ऐसे रवैये से उत्साहित EPFO लगातार मनमाने और अवैधानिक रूप से अपने पेंशन के नियमों में फेरबदल कर सेवानिवृत्तों को उनके न्यायसंगत पेंशन पाने के अधिकार से वंचित कर रखा है. एक और कारण भी हो सकता है- और वह है देश का लापरवाह मीडिया और प्रिंट मीडिया, जिसे यह आज तक यह अमानवीय अन्याय सूझा ही नहीं है.  

दुनिया में सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा संगठन होने का दावा करने वाले और वर्तमान में अपने सदस्‍यों से संबंधित 19.34 करोड़ खातों (वार्षिक रिपोर्ट 2016-17) का रख रखाव करने वाले EPFO और भारत सरकार के रहमों-करम से 2016-17 से अब तक पौने दो लाख पेंशनरों की मौत हो चुकी है. इनमें से न जाने कितने बीमारी और अपना इलाज नहीं करवा पाने के कारण गुजर गए. मामूली सी हजार रुपए पेंशन की रकम से जीवन के अंतिम प्रहार में गुजर-बसर कर रहे ऐसे लाखों हैं, जो पेंशनर कहलाते हैं, और जिन्हें EPFO पेंशन के नाम पर ठीकरे देकर अपने सामाजिक सुरक्षा का दायित्व निभाने का दम भरता है.

इस अध्यादेश को कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम 1952 द्वारा बदला गया. कर्मचारी भविष्य निधि विधेयक संसद में वर्ष 1952 के बिल संख्या 15 के रूप में लाया गया, ताकि कारखानों तथा अन्य संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों के भविष्य निधि की स्थापना के प्रावधान हो सके. इसे अब कर्मचारी भविष्य निधि एवं प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम 1952 के रूप में जाना जाता है. यह अधिनियम पूरे भारत में लागू है.

इसमें भारत सरकार और EPFO के लिए इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि EPFO अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रति महीने 2,000 रुपए का जो चिकित्सा भत्ता देता है, वह EPFO अपने उस खाते से देता है, जिसमें श्रमिकों के पैसे पड़े हैं. जबकि केंद्र सरकार के कर्मचारियों को 1,000 रुपए का मासिक चिकित्सा भत्ता मिलता है. क्या सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लागू करने वाली भारत सरकार और देश की संसद को कभी यह अमानवीय चालाकी नहीं सूझी होगी? सभी पे कमीशनों की सिफारिशों का पूर्ण लाभ पाने वाले EPFO के अधिकारी और कर्मचारी केंद्र सरकार के नहीं हैं?

भारत सरकार पर इतना गंभीर आरोप लगाना कोई गैरजिम्मेदारी से दिया गया वक्तव्य नहीं हो सकता. यह गंभीर आरोप वास्तविक है और शत-प्रतिशत सत्य है. उपरोक्त उदाहरण सामने है. आजादी के 73-74 वर्ष हो गए, सरकार ने निजी क्षेत्र के श्रमिकों और कर्मचारयों के लिए ‘कर्मचारी भविष्य निधि’ की स्थापना दिनांक 15 नवम्बर 1951 को श्रम मंत्रालय के अंतर्गत कर्मचारी भविष्य निधि अध्यादेश के जारी कर किया था. इसके साथ ही पेंशन के नाम पर इसका रवैया श्रमिक विरोधी और पेंशनर्स विरोधी ही रहा है. केंद्र सरकार अपने कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए नियत समय पर पे कमीशन (वेतन आयोग) का गठन करती रही और उसके सिफारिशों को लागू करती रही. राज्य सरकारें भी उन्हीं सिफारिशों के अनुसार अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को उन सिफारिशों का लाभ पहुंचाती रही है. उनके GPF पेंशनरों को भी सिफारशों का लाभ मिलता रहा है. लेकिन EPF के मामले में न्यूनतम पेंशन 1952 के बाद 2014 में मात्र 1,000 कर भारत सरकार के श्रम मंत्रालय का यह संगठन पेंशनरों पर अहसान जता रहा है.

पहले EPFO सेवानिवृत्तों को अत्यल्प 150-200 रुपए से लेकर अधिकतम 1,000-1,200 रुपए तक के पेंशन देता था. अनेक वर्षों की मांग के बाद 2014 में सरकार ने इसे बढ़ा कर न्यूनतम 1,000 रुपए किया है. पेंशन देने का फार्मूला भी ऐसा बनाया गया है कि अधिकतम रकम भी 3,000 रुपए के आसपास ही पहुंच पाता है. चाहे किसी का वेतन कितना भी क्यों न हो. पेंशन की यह रकम भी आज के समय में एक वयोवृद्ध व्यक्ति के जीवन-यापन में क्या मायने रखती है, इस अमानवीय पक्ष को कोई भी संवेदनशील व्यक्ति समझ सकता है. लेकिन भारत सरकार को संभवतः आज तक यह समझ में नहीं आया है.

इस अधिनियम तथा इसके अंतर्गत बनी EPFO का संचालन एक त्रिपक्षीय बोर्ड केंद्रीय न्यासी बोर्ड द्वारा किया जाता है. जिसमें भारत सरकार, राज्य सरकारें, नियोक्ता तथा कर्मचारियों के प्रतिनिधि शामिल रहते हैं.इस त्रिपक्षीय बोर्ड, जो न्यासी (ट्रस्टी) है, के कार्यकलाप की समीक्षा करने का अधिकार सरकार को अवश्य होगा. इसके बावजूद कभी ऐसी कोई समीक्षा की जरूरत समझी, यह विदित नहीं है.

कहने को श्रम मंत्रालय की संसदीय समिति है. इसमें लोकसभा और राज्यसभा के नामित सदस्य शामिल होते हैं. भारत सरकार को जब कभी अपनी लोकलुभावन योजनाओं के लिए वित्त पोषण की जरूरत अथवा किसी और कारण से जरूरत पड़ी तो वह इस समिति को सक्रिय कर देती है. जैसे अभी पिछले माह ही यह समिति सक्रिय हुई है और इसने लेबैत पैनल का गठन किया है. इसका उद्देश्य परोक्ष रूप से असंगठित क्षेत्र के लिए प्रधानमंत्री द्वारा घोषित “प्रधानमंत्री श्रम योगी सम्मान योजना” को लागू करने के लिए आवश्यक धन राशि का जुगाड़ करना हो सकता है. क्योंकि सरकार ने संसद की सहमति से ही देश के असंगठित श्रमिकों को EPFO में शामिल कर दिया है. और अभी EPFO के कोष में खरबों (10 खरब रुपए से अधिक) की रकम पड़ी है, जो संगठित क्षेत्र के श्रमिकों और कर्मचारियों द्वारा विभिन्न कारणों से दावा नहीं कर पाने के कारण EPFO के खाते में जमा पड़ी है.

लेबर पैनल की पहली बैठक पिछले बुधवार, 21 अक्टूबर को हुई, जिसमें पैनल को EPFO से यह सवाल करना पड़ गया कि सुप्रीम कोर्ट और अनेक हाईकोर्ट्स के फैसले के बाद भी वह सेवानिवृत्तों को Higher Pension क्यों नहीं दे रहा है. इस पर EPFO के अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने रिव्यू पिटीशन का हवाला दिया और सफाई पेश की कि अंतिम उच्च वेतन पर पेंशन देने से उसे भारी वित्तीय बोझ उठाना पड़ेगा. अधिकारियों ने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट को भारत सरकार ने भी बता दिया है. इस जवाब से लेबर पैनल को कितनी संतुष्टी मिली, यह तो बाद में ही पता चलेगा.

पेंशनरों के साथ ऐसी निष्ठुर और अमानवीय सलूक की इस कड़वी और नंगी हकीकत की ओर से लोक कल्याणकारी कहलाने वाली सरकार कैसे आंखें फेर कर खड़ी हो सकती है, इसका जवाब तो संभवतः देश का सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं देना चाहेगा. नहीं तो EPFO का रिव्यू पिटीशन और इसके समर्थन में भारत सरकार का स्पेशल लीव पिटीशन डेढ़ वर्ष के फैसले के लिए विचाराधीन नहीं बना रहता..!  

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