लचर न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया कमर तोड़ रही आम लोगों की

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देश के हाईकोर्ट्स में 51.5 लाख, निचली अदालतों में 3.5 करोड़ केसेस लंबित, सुप्रीम कोर्ट की आंकड़े का पता नहीं

*कल्याण कुमार सिन्हा-
आलेख :
केंद्र सरकार के कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी देश की अदालतों में लंबित मामलों के आंकड़े हमारी लचर न्याय व्यवस्था की पोल खोलती है. इन आंकड़ों के अनुसार, देश भर के विभिन्न हाईकोर्ट्स में 51 लाख से अधिक मामले (51,52,921) लंबित हैं और लगभग 3.5 करोड़ मामले (3,44,73,068) देश की निचली अदालतों में लंबित हैं.
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अकेले इलाहाबाद हाईकोर्ट में 7 लाख से अधिक
7 लाख से अधिक अनसुलझे मुकदमों के साथ, इलाहाबाद हाईकोर्ट में उच्च न्यायालयों की सूची में सबसे ऊपर है. उसके बाद पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में 6 लाख लंबित मामलें, मद्रास उच्च न्यायालय ने 5.7 लाख लंबित मामलें और राजस्थान उच्च न्यायालय ने 5 लाख लंबित मामलें लंबित हैं. यह डेटा 16 सितंबर, 2020 तक अपडेट किया गया है.

निचली अदालतों में लंबित मामलों में उत्तर प्रदेश अव्वल
जिला स्तर पर उत्तर प्रदेश में न्यायालयों में 81,86,410 मुकदमे लंबित हैं, इसके बाद महाराष्ट्र में 42,21,418 और बिहार में 30,94,186 मामले लंबित हैं. यूपी के बाद महाराष्ट्र में लंबित मामलों की संख्या लगभग दोगुनी है.

हाल ही में जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने भारत में मामलों की पेंडेंसी पर नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्राइंड (NJDG) से डेटा साझा किया था. उन्होंने बताया था कि 24 मई तक भारत में 32.45 मिलियन मामले लंबित थे, और 10% से अधिक मामले 10 साल से अधिक पुराने थे.
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24 मई तक देश में 32.45 मिलियन मामले लंबित
मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, लोकसभा में उठाए गए एक प्रश्न के लिखित जवाब में सिक्किम उच्च न्यायालय में लंबित मामलों की सबसे कम संख्या है, अर्थात 240. इसके बाद त्रिपुरा के उच्च न्यायालय और मेघालय के 2,127 नंबर हैं, क्रमशः 4,170 मामले.

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कोर्ट्स में एक भी लंबित नहीं
जिला स्तर पर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के केंद्र शासित प्रदेशों के न्यायालयों में एक भी मामला लंबित नहीं है. 681 मामले लद्दाख की अदालतों में और 1345 नागालैंड की आदलतों में लंबित हैं. अरुणाचल प्रदेश और केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप और पुडुचेरी के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.

आंकड़े अब चौंकाते नहीं
ये आंकड़े अब चौंकाते नहीं हैं. क्योंकि पिछले अनेक सालों से देश की जनता विभिन्न अदालतों में लंबित मामलों को केवल बढ़ते हुए ही सुना और देखा गया है. आंकड़े प्रस्तुत करते हुए कानून मंत्रालय ने हालांकि प्रति वर्ष के बढ़ते आकड़ों का कोई तुलनात्मक विवरण संभवतः बताने की जरूरत नहीं समझी है.
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सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों के बुरे हाल
इसके साथ ही मंत्रालय ने देश के सर्वोच्च अदालत के लंबित मामलों को भी पचा गया है. देश के उच्चतम न्यायालय का तो यह हाल है कि राजनीतिक विवादों, हाई प्रोफाइल मामले तो वहां आनन-फानन में निपटा दिए जाते हैं. लेकिन गरीबों और श्रमिकों से संबंधित मामलों में अपने फैसले के विरुद्ध पैसे वालों और सरकारी महकमों के रिव्यू पीटिशन पर पूर्व फैसले पर स्टे तो दे दिए जाते हैं, लेकिन रिव्यू पिटीशन को निपटाने में भी महीनों और वर्षों तक केवल तारीख पर तारीख ही दी जाती है.

जजों की अपेक्षित संख्या में कमी
देश की अदालतों के लंबित मामलों के आंकड़ों में कमी लाने के सरकारी कोशिशें हमेशा कम पड़ती रही हैं.आंकड़ों में कमी नहीं आने के पीछे जिला स्तर तक की तमाम निचली अदालतों में जजों की अपेक्षित संख्या में कमी बताई जाती रही है. जहां एक न्यायाधीश के ऊपर औसतन ग्यारह हजार से भी ज्यादा मुकदमों का बोझ हो, वहां हम समय पर न्याय की उम्मीद कर भी कैसे सकते हैं.

आंकड़ों में कमी नहीं आ पाना गंभीर चिता का विषय
लोक अदालतों का देश भर में जिला से लेकर निचले स्तर तक नियमित रूप से आयोजन किया जाता है. हर बार प्रत्येक लोक अदालतें कम से कम 50 मामले द्विपक्षीय समझौतों के आधार पर निपटाती है. इसके अलावा विशेष मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाते हैं. ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय हैं, इनका गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है. इसके अलावा देश के विभिन्न सरकारी विभागों के विवादों के निपटारे के लिए 19 ट्रिब्यूनल हैं. फिर भी लंबित मामलों के आंकड़ों में कमी नहीं आ पाना गंभीर चिता का विषय है.

न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया की कमजोरियां भी जिम्मेवार
लंबित मामलों की बढ़ती संख्या के पीछे देश की न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया की कमजोरियां भी रही हैं. देश की समस्त अदालतों में लंबित मामलों की कुल संख्या के 10% मामले ऐसे भी हैं, जो 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं. की बार ऐसे मामलों में जब जजमेंट आता है और पता चलता है कि इस मुकदमें का फैसला 30-30 वर्षों, 40-40 वर्षों के बाद हुआ है तो दांतों टेल उंगलियां दबा लेनी पड़ती हैं. साधारण विवादों के मामले में भी न्याय पाने के लिए अदालतों के वर्षों चक्कर लगाने और धक्के खाने की मजबूरी गरीब के जमीन-जायदाद तक बिकवा देते हैं.

तारीख पर तारीख
अदालतों में मुकदमों की “तारीख पर तारीख” का फिल्मी डायलॉग की बानगी तो पूरे देश में आम है. ऐसी प्रक्रिया में सुधार की दिशा में सरकार तो उदासीन है ही, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स की भी कोई पहल दिखाई नहीं देती. वकीलों के संगठनों से तो कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती.

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