कृषि विकास में लघु उर्वरक उत्पादकों की भूमिका पहचानें

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कृषि विकास

आत्मनिर्भर भारत के लिए लघु एवं सूक्ष्म उद्यमियों को विदेशी आयात से स्पर्धात्मक सुरक्षा जरूरी

*राजीब चक्रवर्ती-
आलेख : भारत में आधुनिक कृषि विकास और कृषि उत्पादों में सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमियों की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जो कहीं भी दर्ज नहीं है. यूरिया, डीएपी, पोटाश और उसके मिश्रण से बने कुछ उत्पादों को छोड़ दिया जाए, तो लगभग सभी आधुनिक उर्वरक भारत में कभी न कभी, किसी छोटे उद्दमी द्वारा ही लाया और कठोर परिश्रम से सीमित किसानों तक पहुंचाया गया है. इतना ही नहीं, इनका प्रचार-प्रसार करने और बाजार का विस्तार करने में भी उसने बहुत समय और धन लगया है. लेकिन, बाद में आईं बड़ी कंपनियां इन नए उत्पादों को अपनाकर उर्वरक बाजार पर एकाधिकार कायम करने सफल हैं.

सन 2002 में, कृषि विकास और कृषि उत्पादों में एक क्रांतिकारी पहल के तहत, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने छोटे उर्वरक उत्पादकों के प्रयासों को सराहते हुए घुलनशील उर्वरक को FCO-1985 (Fertilizer Control Order-1985) में मान्यता दी थी. इस निर्णय से भारत के किसानों ने एक नए युग में प्रवेश किया और भारत निर्यात योग्य अंगूर, अनार, केला, और कई अन्य सब्जियों का उत्पादन और निर्यात करने में सक्षम हुआ. साथ ही साथ, INM (Intrigated Nutient Manegment) ने FCO 1985 में कई भी सुधार किए, ताकि सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योग नए-नए प्रयोगों को जारी रख सकें और देश के प्रगति को रफ्तार दे सकें.

अब एक और नए युग की शुरुआत, उर्वरक (अकार्बनिक, कार्बनिक या मिश्रित) नियंत्रण संशोधन आदेश 2021 के जरिए, बायो स्टिमुलंट को FCO में जगह देकर की गई है.

लेकिन सूक्ष्म, लघु एवं मझोले, उद्यमियों को प्रोत्साहन के लिए अभी भी कुछ महत्वपूर्ण निम्नांकित छोटे सुधार अपेक्षित हैं-
 
1. FCO-1985 को एक सरल और छोटे उद्योगों के समर्थन प्रणाली के रूप में देखा जाता है. बायो स्टिमुलंट कानून FCO-1985 के अंतर्गत बना एक अध्याय है और इसे FCO के मुख्य संरचना के दायरे में ही होना चाहिए. उदाहरण स्वरूप, FCO में सूचीबद्ध किसी भी उर्वरक के उत्पादन के लिए केवल “मेमोरेंडम ऑफ इंटिमेशन” देना होता है पर बायो स्टिमुलंट अधिसूचना, एक जटिल संरचना के साथ-साथ सूचीबद्ध उर्वरक की भी अलग से विषाक्तता डाटा की मांग करती है.

2. FCO के किसी भी अनुसूची में सूचीबद्ध होते ही एक उर्वरक सभी उद्योगों द्वारा आयात या उत्पादन योग्य हो जाता है. सूचीबद्ध उर्वरकों में कभी भी किसी निर्माता का नाम या फिर “ब्रांड नेम” नहीं लिखा जाता. नया बायो स्टिमुलंट अधिसूचना ब्रांड नेम लिखने की बात करता है और इस वजह से सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योग किसी एक समूह विशेष के अधीन न हो जाएं, ऐसी आशंका हैं.

3. विश्व भर में बायो स्टिमुलंट को जैविक माना गया है और एक जैव प्रेरक होने के नाते यह विषाक्त (toxic) नहीं होता. उक्त आदेश इसके लिए विषाक्तता परीक्षण अनिवार्य करता है, जो एक बेहद महंगी प्रक्रिया है. सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योग, जो 5-10 उत्पाद के साथ कृषि विकास के कार्य में शामिल हैं, ऐसे खर्च वहन नहीं कर सकती. इसलिए इस भार को सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योगों से हटा लिया जाना जरूरी है.

उर्वरक के रूप में बेचे जाने वाली किसी भी उत्पाद में toxic effect न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार के परीक्षण केन्द्रों को कर NABL (National Accreditation Bord for Testing and Calibration Laboratories) से मान्यता दी जाए और समय-समय पर FCO-1985 धारा के तहत नमूना संग्रहण और परीक्षण किया जाना जरूरी है. पहली बार अनुसूची 6 में सूचीबद्ध करने के लिए आवेदक को Generally Regarded As Safe (GRAS) या फिर अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय कृषि विश्वविद्यालय और कृषि अनुसंधान केन्द्रों द्वारा अतीत में दिए गए सुझाव के अनुसार विषाक्त परीक्षण से छूट दी जाए.

4. कृषि विकास और आधुनिक कृषि आधुनिक तंत्रज्ञान पर निर्भर है और हमारा देश इसके लिए लंबे समय तक आयात पर निर्भर रहा है. शायद इसीलिए पुराने समय में बना FCO-1985 भी आयात को स्वदेशी आत्मनिर्भरता से ज्यादा प्रधानता देती है. यह बहुत ही दुखद है कि एक चीनी निर्माता, या फिर दुबई के व्यापारी को भारत में उत्पाद बेचने के लिए किसी पंजीकरण की आवश्यकता नहीं होती. लेकिन, इसके विपरीत, एक भारतीय निर्माता को 6 से लेकर 8 लाइसेंस अपने राज्य में और फिर कई और लाइसेंस दूसरे राज्यों में भी अपना उत्पाद बेचने के लिए लेने पड़ते हैं.

5. भारत के सभी नमूना परीक्षण केंद्रों, (राज्य और केंद्र), की विश्वसनीयता सुदृढ़ करने के लिए तत्काल NABL किया जाना चाहिए. साथ ही इन केंद्रों कार्यरत chemists की प्रशिक्षण सूची एवं NABL Report समय-समय पर संगठनों के साथ साझा किया जाना चाहिए.

कृषि विकास में केंद्र सरकार के ‘आत्मनिर्भर भारत’ के सपने को साकार करने के लिए इस व्यवस्था को बदलना बेहद जरूरी है. विशिष्ट उर्वरक (जैव प्रेरक) के उत्पादकों को लाइसेंस राज से बाहर निकालकर चाइनीज आयात के मुकाबले सशक्त करने का यह एक सुनहरा अवसर है और इसके लिए निम्नलिखित सुझावों पर अमल किया जाना भी जरूरी है-

कृषि विकास में लघु उर्वरक उत्पादकों की अड़चनें
अ. विदेशी निर्यातकों, खास कर चीन को मिल रहे लाभ के तर्ज पर भारतीय निर्माताओं को किसी भी राज्य में उर्वरक की मार्केटिंग/रिपैकिंग कंपनियों को उनके अपने ही ब्रांड में बेचने की अनुमति दी जाए. निर्माता रिपैकर्स को “सोर्स सर्टिफिकेट” मुहैया कराएंगे और रिपैकर्स, पैकिंग पर भारतीय निर्माता का नाम लिखेंगे. बिलकुल ऐसी ही सुविधा चाइनीज उर्वरक निर्यातकों को भारत में मिल रहा है. जबकि देश के सभी राज्यों में लाइसेंस लेने और उसे चलाने के खर्च के दबाव में देश के सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योग विकसित नहीं हो पा रहे हैं.

आ. जैव प्रेरक के उत्पादन हेतु, अन्य सभी विशिष्ट उर्वरकों को समानांतर FCO की मूल धाराओं के अनुसार, कम से कम आवश्यक लेबोरेटरी इक्विपमेंट और प्लांट एंड मशीनरी की निरीक्षण रिपोर्ट के आधार पर उत्पादन करने दिया जाना चाहिए.

इ. सारे विशिष्ट उर्वरक जैसे की घुलनशील खाद और अन्य, जिसमें अब जैव प्रेरक शामिल हैं, मुख्य तौर पर बागवानी फसलों की खेती में इस्तेमाल किए जाते हैं. इस तरह के देशी उत्पादों को आत्मनिर्भरता देने के लिए और चीन जैसे देशों के साथ स्पर्धा में लाने के लिए यह बहुत ही जरूरी है.

इसके साथ ही जरूरी कदमों की जरूरत-
1. FCO की सही व्याख्या और एक समान कार्यान्वयन – राज्य सरकारें FCO-1985 का अलग-अलग व्याख्या करती आई हैं और सूक्ष्म एवं लघु उद्योग के प्रगति में यह अत्यंत बाधक है. कई बार INM को राज्य सरकारों को सचेत करना पड़ता है. लेकिन इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा है. उदाहरण के तौर पर- राजस्थान कृषि विभाग आयात से पहले ही आवेदन के साथ आयात के कागजात की मांग करता है, 5 साल की जगह, हर साल लाइसेंस नवीकरण की प्रथा चलाई जा रही है, महाराष्ट्र सरकार का कृषि विभाग 3 बार नमूना जांचे बगैर ही एफआईआर दाखिल करती पाया गया है, छत्तीसगढ़ “मेमोरेंडम ऑफ इंटिमेशन” के NABL लेबोरेटरी की रिपोर्ट की मांग करता है, जबकि राज्य सरकार की कोई भी सरकारी लेबोरेटरी NABL नहीं है. इन सभी राज्यों में ऑनलाइन के नाम पर पोर्टल तो है पर सारा काम आज भी कागजों पर ही होता है.  

समाधान के तौर पर यह जरूरी है कि उर्वरक पंजीकरण का एक सेंट्रलाइज पोर्टल होना चाहिए और राज्य सरकार को इसमें एक्सेस दिया जाना चाहिए.

2.”इंस्पेक्टर राज” को समाप्त करने के लिए जिलों  में केवल जिम्मेदार पूर्णकालिक इंस्पेक्टर होने चाहिए, जो INM के अधीन हो. उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में 13 तालुका वाले जिले में आज के समय 44 इंस्पेक्टर हैं. इनमे से कोई भी नमूना संग्रहण के लिए उत्पादन स्थल का निरीक्षण करने चले आते हैं. इस संख्या को 16 किया जा सकता है और केवल DQCI या उनसे वरिष्ठ अधिकारियों को ही को ही फैक्टरी से नमूना संग्रहण का अधिकार होना चाहिए.

3. पंजीकृत सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उत्पादकों पर एफआईआर और जेल का प्रावधान हटाकर आर्थिक दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए.

4. कृषि विकास में लघु उर्वरक उत्पादकों की अड़चनें दूर करने के लिए यह भी जरूरी है कि सभी “विशिष्ट उर्वरक” अति कठोर कानून ‘एसेंशियल कमोडिटी एक्ट’ और लाइसेंस राज के दायरे से बाहर लाया जाए. सभी पंजीकृत उत्पादक उद्यमी देश के जिम्मेदार नागरिक हैं और वे कानून के दायरे में रहकर काम करते रहे हैं.
कृषि विकास लेखक राजीब चक्रवर्ती, एक लघु एवं सूक्ष्म उद्योग क्षेत्र के उर्वरक उत्पादक हैं. 

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