पेंशन मामले में भी मजदूर विरोधी है ईपीएफ अधिनियम

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पेंशन

केंद्र सरकार की सामाजिक न्याय दिलाने वाली नीतियों की शर्मनाक सच्चाई..!

डॉ. के.एन. हरिलाल (प्रोफेसर, सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, त्रिवेंद्रम) द्वारा लिखा गया एक अच्छा लेख केरल के एक प्रमुख दैनिक मलयालम अखबार यानी *मातृभूमि* टुडे (छवि संलग्न) में प्रकाशित हुआ है. मेरे व्यक्तिगत अनुरोध पर, मेरे पेंशनभोगी मित्र श्री रमेसन, (Ex-Milma) ने हमारे पेंशनभोगी मित्रों के बीच साझा करने के लिए इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है. उन्हें मेरी और हमारे पेंशनभोगी मित्रों की ओर से धन्यवाद. तदनुसार, अंग्रेजी अनुवाद (जैसा प्राप्त हुआ) आपकी जानकारी के लिए साझा किया है. – प्रवीण कोहली, नई दिल्ली.
 
श्री कोहली द्वारा साझा किए गए अंग्रेजी में अनुदित लेख का हिन्दी अनुवाद विदर्भ आपला के पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है.- संपादक
*डॉ. के.एन. हरिलाल
विश्लेषण : अध्ययनों से पता चला है कि भारत 2021 तक अकाल के लिए विश्व रैंकिंग में दुनिया में 101वें स्थान पर है. यदि भारत सामाजिक न्याय के मामले में सूची में सबसे पीछे है, तो यह असमानता के मामले में दुनिया में सबसे आगे है. यह भी चिंता का विषय है कि भारत सामाजिक न्याय में पिछड़ा हुआ है और असमानता के मामले में दुनिया में सबसे आगे है. प्रकाशित वैश्विक पेंशन सूचकांक, जो प्रमुख देशों की पेंशन प्रणालियों की तुलना करता है, को भी बहुत आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है. 2021 तक, भारत 43 देशों में 40वें स्थान पर है. पिछले वर्षों की तुलना में भूख और पेंशन पर भारत की स्थिति बिगड़ती जा रही है.

पेंशन सूचकांक सीएफए संस्थान और मोनाफ सेंटर द्वारा संकलित और प्रकाशित किया गया था. यह सूचकांक पेंशन-प्रणाली की पर्याप्तता और निरंतरता पर आधारित है. सूचकांक तैयार करने के तरीके में बदलाव से भारत की रैंकिंग में थोड़ा अंतर आ सकता है.

लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत सबसे खराब पेंशन-प्रणाली वाले देशों में से एक है. वास्तव में, केवल सरकारी कर्मचारी जो भारतीय श्रम शक्ति में पर्याप्त हिस्सा नहीं हैं, वे रोजगार की पूरी लागत को कवर करने वाली उचित पेंशन के हकदार हैं. 2004 के बाद, सरकार ने इसे भी भागीदारी पेंशन में स्थानांतरित कर दिया. सरकारी क्षेत्र में लागू की गई भागीदारी पेंशन-योजना से कर्मचारियों को उचित पेंशन मिलेगी या नहीं, यह कोई सुनिश्चित नहीं कर सकता. सहभागी पेंशन-योजना का कार्यान्वयन पर्याप्त पारदर्शिता के साथ आगे नहीं बढ़ रहा है. इस संबंध में और अधिक स्पष्टता और निश्चितता होनी चाहिए.

*असंगठित क्षेत्र में पेंशन
अन्य क्षेत्रों में श्रमिकों और स्वरोजगार करने वालों की स्थिति सरकारी कर्मचारियों के बहुत छोटे अल्पसंख्यक की तुलना में कहीं अधिक खराब है. आमतौर पर माना जाता है कि संगठित श्रमिकों में इनमें से कम से कम कुछ बेहतर पेंशन प्राप्त करने की क्षमता होती है. इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी शामिल हैं, जिनमें नवरत्न कंपनियां और 20 से अधिक कर्मचारियों वाली निजी कंपनियां शामिल हैं. 10% से भी कम कार्यबल संगठित क्षेत्र में है. संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए पेंशन योजना 1995 में शुरू की गई कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) योजना है. EPF पेंशन की दयनीय स्थिति को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि भारत में संगठित क्षेत्र के श्रमिक भी, एक बार जब वे सेवानिवृत्त हो जाते हैं तो जल्द ही उन्हें गरीबी से नीचे धकेल दिया जाता है. नियोक्ता को कर्मचारी के वेतन का 8.33 फीसदी और केंद्र सरकार को 1.66 फीसदी पेंशन-फंड में देना होता है. आकर्षक प्रावधान के पीछे यह एक धोखा है कि नियोक्ता और सरकार को अपने वेतन का 9.49 प्रतिशत पेंशन-फंड में देना चाहिए.

जालसाजी यह है कि कर्मचारियों के पेंशन-योग्य मासिक वेतन की ऊपरी सीमा सिर्फ 15,000 रुपए तय की गई है. 2014 तक, अधिकतम वेतन सीमा 6,500 रुपए थी. देखिए भारत सरकार किस हद तक पूंजीपतियों के हितों की ‘रक्षा’ कर रही है. कितनी शर्म की बात है कि सरकार खुद यह कहती है कि नियोक्ता कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे कर्मचारी के पेंशनफंड में एक ‘मामूली और पूरी तरह से अपर्याप्त राशि’ का योगदान करना चाहिए. ऐसी व्यवस्था हमारे देश में ही देखी जा सकती है.

*संसद द्वारा पारित कानून और अदालती फैसलों की अवहेलना
ईपीएफ अधिनियम बेहतरपेंशन प्रदान कर सकता था, यदि कर्मचारी और नियोक्ता आपसी सहमति से अपने पूर्ण वेतन के अनुपात में पेंशनफंड में योगदान करते. हालांकि, 2014 में ईपीएफओ ने एकतरफा संशोधन कर इस प्रावधान को हटा दिया था. केरल सहित उच्च न्यायालयों ने कर्मचारियों की शिकायत पर ईपीएफओ के संशोधन को रद्द कर दिया. ईपीएफओ की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था. फिर भी सरकारी प्राधिकारी संसद द्वारा पारित कानून और अदालती फैसलों की भावना में बेहतर पेंशन देने के इच्छुक नहीं हैं. संसद द्वारा पारित कानून और अदालती फैसलों को मानने के बजाय, केंद्र सरकार ने सीधे सुप्रीम कोर्ट में एक समीक्षा याचिका दायर की है. (और लंबी प्रतीक्षा के बाद अनावश्यक रूप से) सुप्रीम कोर्ट ने पेंशन मामले को तीन सदस्यीय पीठ पर छोड़ने का फैसला दे दिया है. (जो तीन महीनों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी यह तीन सदस्यीय पीठ गठित करने में वह विफल है).

*कमजोर बहाने
कमजोर और असंगठित पेंशनभोगियों के लिए लंबी और जटिल मुकदमेबाजी प्रक्रिया में फंसाना असंभव है. यह भी केंद्र सरकार का ही आकलन है. लेकिन अब, पेंशन और वृद्धावस्था सुरक्षा की अवधारणा को ही खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है. वर्तमान में, संगठित क्षेत्र में सबसे अधिक वेतन पाने वाले कर्मचारियों के लिए भी उपलब्ध अधिकतम-पेंशन 7,500 रुपए प्रति माह है. इस अधिकतमपेंशन तक बहुत कम लोग पहुंच पाते हैं. अधिकांश लोगों को प्रति माह 2,500 रुपए से कम मिलती है. कितने साल बीत जाएं, पेंशन नहीं बदलती. ऐसा इसलिए है, क्योंकि ईपीएफ पेंशन में डीए (महंगाई भत्ते) का प्रावधान नहीं है. पेंशन इतनी हास्यास्पद रूप से कम होने का कारण यह तर्क दिया जाता है कि जिस वेतन के लिए पेंशन का हकदार है, वह बहुत कम है. दूसरा कारण तो पेंशन की गणना के लिए उपयोग किए जाने वाले समीकरण की पेचीदगियां हैं ही.

*पेंशन तय करने का अद्भुत शर्मनाक समीकरण
सीधे शब्दों में कहें, ईपीएफ-पेंशन के हकदार वेतन की राशि है जिसे सेवा के वर्षों की संख्या से गुणा किया जाता है और सत्तर से विभाजित किया जाता है. इस अद्भुत समीकरण का उपयोग करके गणना की गई, शुरुआत में कई लोगों की मासिक पेंशन एक रुपए थी. जब पेंशनभोगियों के संगठन ने इस शर्मिंदगी की ओर इशारा किया तो न्यूनतमपेंशन 1000 रुपए तय की गई. इस न्यूनतम पेंशन को भी नकारने के लिए ईपीएफओ की बदनामी कुख्यात है.

*27 लाख से अधिक लोगों के न्यूनतम पेंशन 1,000 रुपए से कम 
अभी भी 27 लाख से अधिक लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यूनतम 1,000 रुपए पेंशननहीं मिली है. उचित पेंशन देने से इनकार करने का कारण यह बताया गया है कि पैसा नहीं है. तर्क यह दिया जाता है कि यदि नियोक्ताओं और श्रमिकों को पेंशनकोष में अधिक योगदान करने की अनुमति दी जाती है तो अधिक संसाधन उपलब्ध होंगे. जबकि पेंशन फंड में लावारिस पड़े 50,000 करोड़ रुपए से अधिक राशि को डायवर्ट करने के प्रस्ताव को छोड़ दिया जा सकता है और सबसे कम भुगतान के लिए न्यूनतम पेंशन बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.

*गरीब श्रमिकों के योगदान से ईपीएफओ प्रशासन शुल्क क्यों…?
ईपीएफओ प्रशासन शुल्क को गरीब श्रमिकों के योगदान से लेने के बजाय बजट से आवंटित करने पर विचार करना भी अत्यावश्यक है. कॉरपोरेट्स को टैक्स में छूट देने और उनके डूबे कर्ज को माफ करने के लिए सालाना खर्च किए गए पैसे के एक छोटे से हिस्से का उपयोग करके, पेंशन क्षेत्र में अन्याय और शर्मिंदगी से बचा जा सकता है. यदि न्यूनतम वेतन 3,000 रुपए निर्धारित किया जाता है और इसका कम से कम आधा न्यूनतम पेंशन के रूप में भुगतान करने का निर्णय लिया जाता है, तो न्यूनतम-पेंशन 4500 रुपए होगी. इसलिए विभिन्न संगठन कम से कम 3,000 रुपए पेंशन की मांग कर रहे हैं.

*सामाजिक न्याय और असमानता
यदि संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए यह मामला है, जो कार्यबल का मात्र दस प्रतिशत है, तो कोई केवल असंगठित क्षेत्र में नब्बे प्रतिशत की स्थिति का अनुमान लगा सकता है. असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की वृद्धावस्था सुरक्षा के लिए कोई महत्वपूर्ण तंत्र मौजूद नहीं है. संयुक्त परिवारों के टूटने, जीवन प्रत्याशा में वृद्धि और जनसंख्या में बुजुर्गों के अनुपात में वृद्धि से स्थिति जटिल है.

केंद्र सरकार की शर्मनाक ‘राष्ट्रीय सामाजिक सहायता’
केंद्र सरकार के ‘राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम’ के तहत कुल सहायता मासिक-पेंशन 200 रुपए 60 से 79 वर्ष की आयु वालों के लिए और 80 वर्ष से अधिक आयु वालों के लिए 500/- रुपए. (यह अलग कहानी है कि केरल में करीब 51 लाख लोगों को 1600 रुपए प्रतिमाह की सामाजिकपेंशन दी जाती है). साथ ही हाल ही में संसद में यह स्पष्ट किया गया है कि केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली पेंशन की लंबी-निर्धारित दरों को बढ़ाना संभव नहीं है. यह मामूलीपेंशन करोड़ों पात्र बुजुर्गों में से केवल 25 प्रतिशत को ही दी जाती है. यहां जो कहा गया है उससे स्पष्ट है कि भारत वैश्विक पेंशन-रैंकिंग में पिछड़ रहा है. इस दुर्दशा को देश की आर्थिक स्थिति की ओर इशारा करके उचित नहीं ठहराया जा सकता है.

ऐसी नीतियां, मेहनतकशों और गरीबों की उपेक्षा करती हैं और उन्हें दंडित करती हैं. साथ ही साथ पूंजी का दुरुपयोग भी अकाल में वृद्धि और उम्र बढ़ने के जोखिम के लिए जिम्मेदार हैं. यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि सरकारी नीतियां गरीब को गरीब और अमीर को अमीर बनाती हैं. वैश्विक असमानता रिपोर्ट 2021 इस बात को रेखांकित करती है.

थॉमस पिकेटी जैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत धन और आय असमानता के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में से एक है. स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल वाले श्रमिकों की नई पीढ़ी को पोषित किए बिना पूंजी और अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकती है.

वे शायद समझ नहीं पा रहे हैं कि भारत की इजारेदार (एकाधिकारी) पूंजी, सोने की बत्तख का वध कर रही है. आम लोगों, विशेषकर श्रमिकों का दिवालियेपन और दरिद्रता इस तरह से हो रही है कि श्रम शक्ति का पुनरुत्पादन असंभव है. स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल वाले श्रमिकों की नई पीढ़ी को पोषित किए बिना पूंजी और अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकती है.
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*केरल के मलयालम दैनिक “मातृभूमि” में डॉ. के.एन. हरिलाल का आलेख

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