प्राचीन भारतीय वास्तु विज्ञान का यह अद्भुत उदाहरण, विश्व के लिए गौरवशाली विरासत है
वास्तु विज्ञान भारत का अत्यंत प्राचीन ज्ञान है, जिसकी हमारे ऋषि मुनियों ने अपने अथक प्रयास से मानव जीवन को सुगम बनाने के लिए रचना की है. इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वास्तु के सिद्धांतों का पालन कर किए गए हमारे देश के निर्माण. केदारनाथ मंदिर हमारे इसी प्राचीन वास्तु विज्ञान का अद्भुत और नायाब प्रतिमान है. 1200 वर्षों से विकट परिस्थितियों में भी अनेक विभीषिकाओं को झेलता हुआ यह मंदिर अक्षुण्ण है. 2013 की विनाशकारी बाढ़ के बारे सबको पता है. इतना ही नहीं, प्रचंड हवा के झोकों और भारी बारिश भी यह लगातार झेलता आया है. इस आलेख में केदारनाथ मंदिर की विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है. सोशल मीडिया से अपनी इस प्राचीन धरोहर की जानकारी अपने सुधि पाठकों को उपलब्ध कराने का यह प्रयास है…
*सोशल मीडिया से साभार,
केदारनाथ मंदिर का निर्माण किसने करवाया, इसके बारे में कई बातें कही जाती हैं. पांडवों से लेकर आदि शंकराचार्य तक. लेकिन हम इसमें नहीं जाना चाहते. आज का विज्ञान बताता है कि केदारनाथ मंदिर शायद 8वीं शताब्दी में बना था. यदि आप न भी कहते हैं, तो भी यह मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अस्तित्व में है.
21वीं सदी में भी माना जाता है कि केदारनाथ की भूमि, भवन शिल्प के लिए सही नहीं है. एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ पहाड़ी, दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊंची कराच कुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊंचा भरत कुंड है. इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पांच नदियां हैं- मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदारी. इनमें से कुछ इस पुराण में लिखे गए हैं. यह क्षेत्र “मंदाकिनी नदी” का एकमात्र भूखंड है. भवन शिल्प कलाकृति कितनी गहरी रही होगी. ऐसी जगह पर भवन कलाकृति का निर्माण, जहां ठंड के दिन भारी मात्रा में बर्फ हो और बरसात के मौसम में बहुत तेज गति से पानी बहता हो.
आज भी आप गाड़ी से उस स्थान तक नहीं जा सकते, जहां आज “केदारनाथ मंदिर” है. इसे ऐसी जगह क्यों बनाया गया? इसके बिना 100-200 नहीं, 1000 साल से अधिक समय पूर्व ऐसी विकट, प्रतिकूल परिस्थितियों में ऐसा मंदिर कैसे बनाया जा सकता है? हम सभी को कम से कम एक बार यह सोचना चाहिए.
वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि यदि मंदिर 10वीं शताब्दी में पृथ्वी पर होता, तो यह “हिम युग” की एक छोटी अवधि में होता. वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून ने केदारनाथ मंदिर की चट्टानों पर लिग्नोमैटिक डेटिंग का परीक्षण किया. यह “पत्थरों के जीवन” की पहचान करने के लिए किया जाता है. परीक्षण से पता चला कि मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी के मध्य तक पूरी तरह से बर्फ में दब गया था. हालांकि, मंदिर के निर्माण में कोई नुकसान नहीं हुआ.
केदारनाथ ने जब झेला विनाशकारी बाढ़…
2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ को सभी ने देखा और इसके बारे में सुना होगा. इस अवधि के दौरान औसत से 375% अधिक वर्षा हुई थी. आगामी बाढ़ में “5748 लोग” (सरकारी आंकड़े) मारे गए और 4200 गांवों को नुकसान पहुंचा. भारतीय वायुसेना ने 1 लाख 10 हजार से ज्यादा लोगों को एयरलिफ्ट किया. सब कुछ ले जाया गया. लेकिन इतनी भीषण बाढ़ में भी केदारनाथ मंदिर का पूरा ढांचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ.
भारतीय पुरातत्व सोसायटी के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर के पूरे ढांचे के ऑडिट में 99 फीसदी मंदिर पूरी तरह सुरक्षित है. 2013 की बाढ़ और इसकी वर्तमान स्थिति के दौरान निर्माण को कितना नुकसान हुआ था, इसका अध्ययन करने के लिए “आईआईटी मद्रास” ने मंदिर पर “एनडीटी परीक्षण” किया. उन्होंने यह भी कहा कि मंदिर पूरी तरह से सुरक्षित और मजबूत है. यदि मंदिर दो अलग-अलग संस्थानों द्वारा आयोजित एक बहुत ही “वैज्ञानिक और तकनीकी परीक्षण” में उत्तीर्ण नहीं होता है, तो आपको सबसे अच्छा क्या समझ आता जो यह ब्लॉग कहता है?
1200 साल बाद, आज अगर आप देशाटन पर वहां जाते हैं तो जहां उस क्षेत्र में आप की जरूरत का सब कुछ ले जाया जाता है, वहां एक भी ढांचा खड़ा नहीं होता है. यह मंदिर मन ही मन वहीं खड़ा है और खड़ा ही नहीं, बहुत मजबूत है. इस मजबूती के पीछे जिस तरीके से इस मंदिर का निर्माण किया गया है, उसे कारण माना जा रहा है. जिस नाजुक स्थान का चयन किया गया है, आज विज्ञान कहता है कि मंदिर के निर्माण में जिस पत्थर और संरचना का इस्तेमाल किया गया है, उसी वजह से यह मंदिर इस बाढ़ में बच पाया.
उत्तर-दक्षिण की दिशा में बना है मंदिर
यह मंदिर “उत्तर-दक्षिण” की दिशा में बनाया गया है. ध्यान दीजिए केदारनाथ को “दक्षिण-उत्तर” बनाया गया है, जबकि भारत में लगभग सभी मंदिर “पूर्व-पश्चिम” हैं. विशेषज्ञों के अनुसार, यदि मंदिर “पूर्व-पश्चिम” होता तो पहले ही नष्ट हो चुका होता. या कम से कम 2013 की बाढ़ में तबाह हो जाता. लेकिन इस दिशा की वजह से ही केदारनाथ मंदिर बच गया है.
दूसरा कारण यह है कि इसमें इस्तेमाल किया गया पत्थर बहुत सख्त और टिकाऊ है. खास बात यह है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया पत्थर वहां उपलब्ध नहीं है तो जरा सोचिए कि उस पत्थर को वहां कैसे ले जाया जा सकता था. उस समय इतना बड़ा पत्थर ढोने के लिए इतने उपकरण भी उपलब्ध नहीं थे. इस पत्थर की विशेषता यह है कि 400 साल तक बर्फ के नीचे रहने के बाद भी इसके “गुणों” में कोई अंतर नहीं है.
इसलिए, मंदिर ने प्रकृति के विधवंसक चक्र में ही अपनी ताकत बनाए रखी है. मंदिर के बाहर से लाए इन मजबूत पत्थरों को बिना किसी सीमेंट के “एशलर” तरीके से एक साथ चिपका दिया गया है. इसलिए पत्थर के जोड़ पर तापमान परिवर्तन के किसी भी प्रभाव के बिना मंदिर की ताकत अभेद्य है. 2013 में, वीटा घलाई के माध्यम से मंदिर के पिछले हिस्से में एक बड़ी चट्टान फंस गई, इससे पानी की धार विभाजित हो गई और मंदिर के दोनों किनारों का पानी अपने साथ सब कुछ ले गया. लेकिन मंदिर और मंदिर में शरण लेने वाले लोग सुरक्षित रहे. जिन्हें अगले दिन भारतीय वायुसेना ने एयरलिफ्ट किया था.
सवाल यह है कि आस्था पर विश्वास किया जाए या नहीं. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि मंदिर के निर्माण के लिए स्थल, उसकी दिशा, वही निर्माण सामग्री और यहां तक कि प्रकृति को भी ध्यान से चुना गया था, जो 1200 वर्षों तक अपनी संस्कृति और ताकत को बनाए रखेगा. टाइटैनिक के डूबने के बाद, पश्चिमी लोगों ने महसूस किया कि कैसे “एनडीटी परीक्षण” और “तापमान” विनाशकारी ज्वार को मोड़ सकते हैं. यह पाश्चात्य देशों के वैज्ञानिक के विचार हैं, पर यह हमारे देश में 1200 साल पहले ऐसी तकनीक का प्रयोग किया जा चुका था. क्या केदारनाथ वही ज्वलंत उदाहरण नहीं है?
कुछ महीने बारिश में, कुछ महीने बर्फ में, और कुछ साल बर्फ में भी, मंदिर पर तेज हवा और भारी बारिश का लगातार हमले जारी हैं. अभी भी समुद्र तल से 3969 फीट ऊपर मंदिर को कवर करती है. हम वहां इस्तेमाल विज्ञान के उपयोग के बारे में सोच कर दंग रह गए हैं, जिसका उपयोग 6 फुट ऊंचे मंच के निर्माण के लिए किया गया है. आज तमाम बाढ़ों, विभीषिकाओं के बाद हम एक बार फिर केदारनाथ के उन वैज्ञानिकों के निर्माण के आगे नतमस्तक हैं, जिन्हें उसी भव्यता के साथ 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊंचा होने का सम्मान मिला है.
यह एक सटीक उदाहरण है कि वैदिक हिंदू धर्म और संस्कृति कितनी उन्नत थी. उस समय हमारे ऋषि-मुनियों यानि वैज्ञानिकों ने वास्तुकला, मौसम विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, आयुर्वेद में काफी तरक्की की थी. यह हमारी, आपकी एक गौरवशाली विरासत है. यह मंदिर एक अनसुलझी संहिता ही है, जो न केवल भारतीय, वरन विश्व के सभी वास्तुविदों के लिए चुनौती से काम नहीं है. विश्व हित के लिए इसके निर्माण की वैज्ञानिकता को पुनर्भाषित करने की आवश्यकता है.