भाषा के बहाने झारखंड में फिर विद्वेष की राजनीति

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अल्पसंख्यक भाषाई समुदाय को शासकीय नौकरी, सुविधाओं से वंचित करने का प्रयास

*कल्याण कुमार सिन्हा-
सियासत : बिहार से अलग हुए झारखंड को 21 साल हुए हैं. इन वर्षों में झारखंड की सत्ता में मुख्य रूप से भारतीय जनता पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा का ही वर्चस्व रहा है. अकूत खनिज सम्पदा और बड़े उद्योगों की यह स्थली विकास की दिशा में जितनी ऊंचाइयां हासिल कर सकती थीं, दुर्भाग्य से नहीं कर पाई.

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रांची में झारखंड विधानसभा भवन का विहंगम दृश्य.

इसका कारण यह माना जाता है कि राज्य में आर्थिक, सामाजिक विकास और मानव संसाधन विकास कभी मुद्दा बन ही नहीं पाया. विभिन्न जन संगठनों की संकुचित सोच और इनके नेताओं की अदूरदर्शिता ने राजनीतिक दलों को सत्ता पर बरकरार रहने या सत्ता हासिल करने के टुच्चे मुद्दों से लोगों को भरमाना आसान कर दिया है. स्थानीय नीति, क्षेत्रीय भाषा और भाषायी अतिक्रमण के नाम पर समाज को बांटने की सियासत शुरू हो गई है. फिलहाल झारखंड विधानसभा का बजट सत्र शुरू हो चुका है. जैसी कि आशंका व्यक्त की जा रही थी कि सत्र में इन्हीं मुद्दों की कहीं फिर से राजनीति न चल निकले, दूसरे ही दिन इस मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष दोनों ही सरकार पर सवालों की बौछार करने की होड़ करते नजर आए.
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झारखंड में क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर उठे विवाद दिल्ली तक पहुंच गई है. भारतीय जनता पार्टी और आजसू पार्टी के एक शिष्टमंडल ने पिछले माह 9 फरवरी को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाकात की और उनसे इस मामले में हस्तक्षेप की गुहार लगाई. राष्ट्रपति को सौंपे ज्ञापन में कहा गया है कि झारखंड सरकार ने जिला स्तर की नियुक्ति परीक्षाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका भाषा को भी शामिल किया है. यह झारखंड के मूल निवासियों के हितों और अधिकारों का अतिक्रमण है. राष्ट्रपति से मांग की गई है कि वह राज्य सरकार को निर्देशित करें कि इन भाषाओं को झारखंड की क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से बाहर किया जाए.
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एक बार फिर 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति का जिन्न सामने लाया गया है. अलग-अलग जन संगठनों के माध्यम से क्षेत्रीय भाषा का प्रश्न सामने कर आंदोलन खड़ा करने की कोशिश शुरू है. आशंका है कि इन मुद्दों पर हंगामा खड़े कर राज्य के भोजपुरी, मगही, बांग्ला, ओड़िया आदि अल्पसंख्यक भाषा भाषियों को दरकिनार करने की कोशिशें शुरू हो जाएंगी. फिलहाल राज्य में सब कुछ सामान्य चल रहा है. हेमंत सरकार के कैबिनेट ने बीते तीन फरवरी को पुरानी नियोजन नीति को रद्द करने का अपना निर्णय वापस ले लिया है. झारखंड सरकार के सामने अभी कोई नई नियोजन नीति का प्रस्ताव नहीं है.
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राज्य के 13 अनुसूचित और 11 गैर अनुसूचित जिलों के लिए रघुवर सरकार के समय लागू की गई नियोजन नीति को कैबिनेट के निर्णय के बाद संकल्प के माध्यम से कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग ने वापस ले लिया है. उसमें नये सिरे से नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी करने का आदेश दिया गया है, जो 2016 के पूर्व की नियोजन नीति के आधार पर होगी.

लेकिन हेमंत सोरेन सरकार का यह निर्णय एक वर्ग को रास नहीं आया. उसे देखते हुए पिछले ही महीने की 18 फरवरी को राज्य सरकार ने जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं की जिलेवार सूची जारी की है. जिलास्तरीय पदों पर नियुक्ति के लिए जनजातीय व क्षेत्रीय भाषाओं की नई सूची में बोकारो से भोजपुरी और धनबाद से भोजपुरी और मगही को हटा दिया गया है.

जेएसएससी द्वारा मैट्रिक व इंटर स्तर की प्रतियोगिता परीक्षा में जिला स्तरीय पदों के लिए भाषाओं को जिलावार चिह्नित करते हुए यह सूची जारी की गई है. इन जिलों में भोजपुरी और मगही भाषाओं को लेकर पिछले दिनों भारी विरोध शुरू हो गया था. फिर भी असंतोष को हवा देने का प्रयास जारी है.

सोरेन सरकार के सुधार के कदमों के बाद क्षेत्रीय भाषा विवाद का मुद्दा अब बदल गया है और अब इसमें नई मांग जुड़ गई है. अब झारखंड मूल के सामाजिक, धार्मिक संगठन बांग्ला, उड़िया को क्षेत्रीय भाषा का दर्जा देने के खिलाफ खड़े हो गए हैं.

अब क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति और नियोजन नीति को लेकर जोर आजमाइश शुरू हो गई है. इसके लिए अभी अभी सोमवार, 28 फरवरी रांची में मानव श्रृंखला के साथ इसे आंदोलन का स्वरूप देने का काम शुरू कर दिया गया है.  

आदिवासी और मूलनिवासी  पर गठित संगठनों ने फिर यह मांग दोहराई है कि सरकार खतियान आधारित स्थानीय नीति, नियोजन नीति, उद्योग नीति और भाषा नीति का निर्धारण करे. स्थानीय नीति के जिन्न को शामिल कर एक बार फिर राज्य में तूफान बरपाने की कवायद अब आगे अपना रंग दिखलाने वाली है.

अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की प्रदेश अध्यक्ष सह पूर्व मंत्री गीताश्री उरांव ने कहा कि सिर्फ दो जिलों से बाहरी भाषाओं को हटा देने से हमारा आंदोलन समाप्त नहीं होगा. साथ ही आदिवासी-मूलनिवासी संयुक्त सामाजिक संगठन का कहना है कि 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति-नियोजन नीति या अंतिम सर्वे के आधार पर स्थानीयता परिभाषित करने के अलावा कोई भी समझौता हमें. मंजूर नहीं है.

अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद ने अपनी रणनीति के अनुसार सोमवार, 28 फरवरी को हरमू बाईपास रोड में मानव श्रृंखला के माध्यम से अपने आंदोलन का आगाज किया. परिषद के अनुसार यह मानव श्रृंखला खतियान आधारित नियोजन और स्थानीय नीति, अन्य बाहरी भाषाओं को क्षेत्रीय भाषा की सूची से पूरे राज्य से हटाने सहित अन्य झारखंडी मुद्दों को लेकर आगामी 14 मार्च को विधानसभा का घेराव किया जाएगा.

झारखंड के आदिवासी और मूलनिवासी के मामले में स्थानीयता और क्षेत्रीय भाषाओं को लेकर फिर से खड़ा किए जा रहे इस आंदोलन के पीछे विभिन्न आदिवासी और मूलनिवासी संगठनों की मंशा सरकारी नौकरियां पूर्ण रूप से झारखंड के आदिवासी और मूलनिवासी युवाओं के लिए सुरक्षित करना है. इसके साथ ही समझा जा रहा है कि वे नहीं चाहते कि झारखंड क्षेत्र के बाहर अर्थात बिहार, बंगाल या ओडिशा से 60-70 साल पूर्व भी आकर झारखंड में कहीं बसे लोगों के बच्चों को कोई सरकारी नौकरी मिले.

अगर ऐसा हुआ तो रांची, धनबाद, जमशेदपुर, हजारीबाग, धनबाद, देवघर, दुमका, और बाेकाराे जैसे शहरों में रहने वाले 75 फीसदी युवा बाहरी माने जाएंगे. और इन्हें सरकारी नौकरियों से वंचित कर दिया जाएगा. इन शहरों में 1932 तो क्या, उससे पहले से भी लोग रोजी-रोजगार के लिए आए और बसते चले गए, उस समय धनबाद जैसे शहर का तो अस्तित्व भी नहीं था.

1971 में कोयला खानों के राष्ट्रीयकरण के पहले यहां खदानों के मालिक भी बाहरी राज्यों के ही हुआ करते थे. उन्होंने ही उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओडिशा आदि राज्यों से खदानाें में काम करने के लिए लाेगाें काे बुलाया. ये कामगार यहां बसते चले गए. फिर 1952 में जब सिंदरी उर्वरक कारखाना शुरू हुआ तो वहां भी काम करने के लिए बाहरी लोग आए और वहीं बस गए. शहरी क्षेत्रों में ऐसे लाेगाें की संख्या बहुतायत में है. उनकी दो-तीन पीढ़ियां यहीं पैदा हुईं और उनके बाल-बच्चे सरकारी नौकरियों के साथ-साथ निजी क्षेत्र और व्यवसाय क्षेत्र भी में कार्यरत हैं. अब उन्हें बाहरी बता कर अलग-थलग किया जाना झारखंड में एक विद्वेषपूर्ण वातावरण पैदा करने जैसा कदम माना जाएगा.

सन 1932 के खतियान काे आधार बनाने का मतलब यह है कि उस समय जिन लाेगाें का नाम खतियान में था, वे और उनके वंशज ही स्थानीय कहलाएंगे. उस समय जिनके पास जमीन थी, उसकी अनेक बार खरीद-बिक्री हो चुकी है. मान लें कि सन 1932 में अगर केवल रांची जिले में 10 हजार रैयत थे तो आज उनकी संख्या एक लाख पार कर चुकी है. यही हालात राज्य के अन्य जिलों की भी है. अब ताे सरकार के पास भी यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि 1932 में जो भूखंड थे, उसके कितने टुकड़े हो चुके हैं.

इस तथ्य पर भी विचार करने की जरूरत है कि जो बहुसंख्य लोग वर्षों से झारखंड में रह रहे हैं, लेकिन खतियान में नाम नहीं आ पाया है, ऐसे हालात में वे क्या कई तरह की सरकारी सुविधाओं से वंचित नहीं हो जाएंगे? क्या वे स्थानीय के लिए आरक्षित नौकरी या शैक्षणिक पाठ्यक्रमों के लिए आवेदन नहीं दे पाएंगे? स्थानीय लोगों के लिए शुरू होने वाली योजनाओं का लाभ क्या वे नहीं उठा पाएंगे?

राज्य में 24 प्रतिशत आदिवासी, 10 प्रतिशत दलित और 20 प्रतिशत बाहर से आकर बसे लोगों के अलावा करीब 46 प्रतिशत मूलनिवासी रहते हैं. आदिवासी और हरिजन के लिए तो आरक्षण नीति लागू है जिससे उन्हें लाभ मिल जाता है, लेकिन ब्राह्मण, राजपूत, तेली, कुर्मी, वैश्य जाति और मुस्लिम अपने अधिकार से वंचित रह जाते हैं. ऐसे में वैसे एक बड़ा वर्ग चाहता है कि 1932 के सर्वे में जिनका नाम हो उसे मूलनिवासी स्थानीय माना जाए.

स्थानीयता काे लेकर विवाद झारखंड के तत्कालीन प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के समय 2002 में शुरू हुआ, जब उन्होंने 1932 के खतियान काे आधार बनाने की कोशिश की. इसका पूरे राज्य में विरोध हुआ. बाद में अर्जुन मुंडा के मुख्यमंत्रित्व काल में सुदेश महतो की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय कमेटी बनी, लेकिन इसकी रिपोर्ट पर कुछ नहीं हाे पाया.

2014 में मुख्यमंत्री रघुवर दास सरकार ने पहली बार स्थानीय नीति को परिभाषित किया. इसमें 1985 से झारखंड में रहने वालाें काे स्थानीय माना. इसमें और भी प्रावधान किए गए थे. लेकिन यह भी मान्य नहीं हुआ. यह मुद्दा मानों सत्ताधारी दल के साथ अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी “अयोध्या का राम मंदिर” मुद्दा बन गया है. इसे लटकाए रखने और विवाद तथा सामाजिक विद्वेष, भेदभाव बनाए रखने में ही सभी की दिलचस्पी बनती जा रही है.

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