विश्लेषण-
राहुल गांधी आखिरकार अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस पार्टी में पदाधिकारी की हैसियत से लाने में सफल हो गए हैं. पार्टी के अच्छे भविष्य के लिए कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते जो भी हो सकता है, राहुल कदम उठा रहे हैं. पिछले उपचुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा को उत्तरप्रदेश में मिली शिकस्त के साथ ही देश तीन बड़े राज्य के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सफलता मिली और तीनों राज्यों में सत्तारूढ़ हुई. इसके बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष को संयुक्त विपक्ष द्वारा अपेक्षित महत्त्व नहीं दिया जाना पार्टी के लिए चिंता का विषय बन गया था. ऐसे में यह जरूरी हो गया कि वह अपने साथ उन लोगों को जोड़े, जिनका व्यक्तित्व और पब्लिक अपील अधिक दमदार है.
अमिताभ से निकटता, शत्रु से आशा…!
पार्टी में प्रियंका की इंट्री सुनिश्चित कर राहुल गांधी ने कांग्रेसियों में उत्साह का संचार किया है. कांग्रेसी प्रियंका में स्व. इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं. यही हाल मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का भी है. उधर चर्चा है कि भाजपा से रुष्ट बिहार के पटना साहिब से सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को भी पार्टी में लाने के प्रयास उन्होंने शुरू कर दिए हैं. इसके साथ ही पुराने पारिवारिक मित्र रहे बॉलीवुड के महानायक बन चुके अमिताभ बच्चन से भी संबंध सुधार कर राहुल ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया है. अमिताभ बच्चन ने उत्तर प्रदेश के 1,000 से अधिक किसानों के कर्ज की रकम अपनी जेब से भर कर उन्हें कर्ज मुक्त कराया है. उनका यह कदम राज्य में उनकी छवि को और हृदयग्राही बनाया है. जवाब में कांग्रेस की ओर से पिछले वर्ष फरवरी में आभार प्रदर्शन के पोस्टर में “आ अब लौट चलें” और “बने चाहे दुशमन जमाना हमारा, सलामत रहे दोस्ताना हमारा…” जैसे गीतों के मुखड़े लगा कर संबंधों में आई खटास दूर करने का संकेत दे दिया था.
भाजपा के साथ ही सपा-बसपा के लिए धर्मसंकट
सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाला राज्य उत्तर प्रदेश केंद्र की सत्ता का प्रवेश द्वार है. इस राज्य में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी अपने गठबंधन में स्थान नहीं देकर कांग्रेस के लिए विचित्र स्थिति पैदा कर दी थी. इस पर जब कांग्रेस अध्यक्ष ने जब कहा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पूरी ताकत से चुनाव लड़ेगी तो पार्टीजनों को भी आश्चर्य हुआ था और विरोधियों ने चुटकी भी लेनी शुरू कर दी थी. ऐसे में कांग्रेसजनों की पहली पसंद रही अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी महासचिव का पद सौंप कर और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया तब स्थितियां बदलती नजर आने लगीं. इसके साथ ही राहुल गांधी ने सत्तारूढ़ भाजपा के साथ ही सपा-बसपा के लिए धर्मसंकट पैदा कर दिया है. साथ ही कांग्रेस अध्यक्ष को सपा-बसपा गठंधन से हाथ मिलाने की पेशकश कर नहले पर दहला मारने का अवसर भी मिल गया है.
लेकिन कांग्रेस के लिए चुनौतियां इतनी बड़ी हैं कि अकेले राहुल गांधी या सोनिया गांधी के बूते उन्हें पार पाना संभव तो बिलकुल ही नहीं माना जा सकता है. कांग्रेस ने पूरे देश में अपनी साख गंवाई है. पिछ्ले 2014 के लोकसभा चुनावों में वह मात्र 44 सीटों पर सिमट कर रह गई. उत्तर प्रदेश में तो केवल दो सीटें ही कांग्रेस को मिलीं और वह भी अमेठी एवं रायबरेली की. कांग्रेस को लगता है कि प्रियंका के आते ही उत्तर प्रदेश में इंकलाब आ जाएगा तो यह इतना आसान भी नहीं है. उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस बहुत अधिक कमजोर है. 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को मिली मात्र 44 सीटें विपक्ष का नेता चुने जाने के लिए भी पर्याप्त नही थी.
कड़वी सच्चाई
धरातल की कड़वी सच्चाई यह है कि 80 सीटों वाले इस उत्तर प्रदेश में पिछले 5 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतार पाई. स्थिति यह बन गई थी कि पिछले दो लोकसभा चुनावों में उसे प्रत्याशी ढूंढे नहीं मिल रहे थे. 2014 में कांग्रेस ने 66 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन केवल दो ही सीटें जीत पाईं, 50 सीटों पर तो प्रत्याशियों के जमानत जब्त हो गई. केवल 14 प्रत्याशी ही ऐसे रहे जो अपनी जमानत बचा पाए. सूत्रों की मानें तो उसकी हैसियत 60 से ज्यादा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की नहीं है. .पिछली बार 66 सीटों पर लड़ने के बाद सिर्फ 6 सीटों पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर आ पाई थी और इन सभी सीटों पर भी हार का बड़ा अंतर था
स्वयं प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर 2014 का चुनाव 5 लाख से अधिक वोटों से से हारे थे. 2014 के उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा वोटों से हार का यह रिकॉर्ड था. जबकि वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी स्मृति ईरानी से सिर्फ 1,07,903 वोटों से जीत पाए थे. .कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की हालत तो ओर भी खस्ता थी बाराबंकी से पी.एल. पुनिया 2,11,000 वोटों से, कानपुर से श्री प्रकाश जयसवाल 2,22,000 वोटों से और वहींं लखनऊ से राजनाथ सिंह के सामने रीता बहुगुणा 2,72,000 वोटों से चुनाव हारी थींं.
स्मरणीय है कि 2014 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मात्र 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि भाजपा को 42.63 प्रतिशत. 73 पर भाजपा गठबंधन को जीत मिली थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को 22.35 प्रतिशत वोटों मिला, लेकिन वह महज पांच सीटों पर जीत ही जीत पाई, जबकि बसपा का प्रतिशत तो 19.77 रहा और उसे एक भी संसदीय सीट पर जीत नहीं हासिल हो सकी, ऐसे हालात में प्रियंका के आने से अपेक्षित सफलता कांग्रेस को मिल जाए तो वह कोई चमत्कार से काम नहीं होगा.
हालांकि इस बीच स्थितियां थोड़ी बदली हैं. मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के राज्य चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन कर अपने कार्यकर्ताओं, समर्थकों के बीच उत्साह का संचार जरूर किया है, लेकिन उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का जनाधार पूरी तरह से सिमटा हुआ है. सीटों के एक-एक बूथ पर बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं की जरूरत है. इतने कार्यकर्ता भी जुटा पाना कांग्रेस के लिए फिलहाल तो संभव नहीं जान पड़ता. बताया जाता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का थोड़ा बहुत जनाधार है. माना जा रहा है कि इसीलिए चतुराई के साथ प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई है.
पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी भी है. 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 71 सीटों पर अपना परचम लहराने में सफल रही थी. कांग्रेस को राज्य में मात्र गांधी परिवार की दोनों परंपरागत सीटों अमेठी और रायबरेली से ही संतोष करना पड़ा था. लेकिन स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पिछले उपचुनावों में राज्य की विधानसभा सीटों के साथ अपना संसदीय क्षेत्र गोरखपुर भी गंवा चुके हैं. इसके साथ ही अन्य सीटें भी भाजपा को गंवानी पड़ी. हाल के स्वयं भाजपा द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा के जिन बड़े नेताओं की हार सुनिश्चित है, उनमें आधा दर्जन के करीब केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं.
जगी आशा के साथ भरोसे की संभावना…!
ऐसे में प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान और ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कमान सौंप कर कांग्रेस ने अपने लिए एक आशा के साथ भरोसे की संभावना जगा ली है. प्रियंका चुनावों में पहले भी कांग्रेस के लिए चुनावों के दौरान प्रचार में हिस्सा लेती रहीं हैं, लेकिन तब वह केवल अपने भाई और अपनी माताजी के लिए ही अमेठी और रायबरेली लोकसभा क्षेत्रों तक सीमित रहती थीं. यह पहली बार होगा कि वे राज्य के आधे से अधिक लोकसभा क्षेत्रों में कार्य करेंगी. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के साथ जानकारों का मानना है कि प्रियंका गांधी वाड्रा की पार्टी महासचिव के रूप में सक्रियता का असर दूसरे राज्यों में भी पड़ेगा.
प्रियंका का असर पड़ोसी राज्य बिहार और झारखंड में भी पड़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. बिहार में लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन में उनका राजद कांग्रेस को भाव देता नजर नहीं आ रहा. 15 सीटों की अपनी मांग से नीचे 12 पर आने के बाद भी लालूजी का राजद दूसरी संभावनाएं तलाशने में लगा है और छोटे दलों को साथ लेकर चलने को अधिक तवज्जो दे रहा है. ऐसे में यदि असंतुष्ट भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को बिहार में साथ लाने में कांग्रेस सफल होती है तो न केवल वह महागठबंधन में अपनी बार्गेनिंग क्षमता बढ़ा सकेगी, बल्कि अधिक सीटें हासिल करने की भी आशा कर सकती है. इससे झारखंड में भी कांग्रेस को अधिक अवसर मिल सकता है.
भाजपा की रणनीति
वैसे भाजपा इस खतरे को भांप चुकी है. प्रियंका की चुनाव में सक्रियता का असर तो परिणामों पर पड़ने ही वाला है. सपा-बसपा भी राहुल की पेशकश मान कर साथ आ गईं तो भाजपा को बड़ी संख्या में सीटों की संभावना वाले इस राज्य में भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है. ऐसी नौबत से निपटने के लिए भाजपा की रणनीति अभी से साफ नजर आ रही है. प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा को लेकर हरियाणा के एनसीआर क्षेत्रों और अन्य इलाकों में तथाकथित भूखंड घोटालों की जांच के बाद अब कार्रवाई शुरू हो चुकी है. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करा दी गई है. राबर्ट वाड्रा के माध्यम से प्रियंका और कांग्रेस को घेरने का यह कदम भाजपा की रणनीति का हिस्सा है. दूसरी ओर नेशनल हेराल्ड मामले में लपेटे में आ चुके कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी पर बदनामी की तलवार भी लटका दी गई है.
खतरनाक भी साबित हो सकती है…!
राफेल डील और नोटबंदी को लेकर सीधे-सीधे प्रधानमंत्री को चोर बताने और लगातार उनपर हमले जारी रखने वाले कांग्रेस अध्यक्ष अध्यक्ष राहुल गांधी और सोनिया गांधी के साथ ही प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए भाजपा की यह रणनीति बहुत ही खतरनाक भी साबित हो सकती है. चुनावों के दौरान इन मामलों में और बड़ी चाल चल कर मतदाताओं की नजर में इनकी छवि बिगाड़ने का काम यदि हुआ तो उसका सीधा असर चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन पर ही पडेगा. पिछले चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलताओं के बावजूद राहुल गांधी अपने को विपक्षी खेमें में स्थापित नहीं कर पाए हैं. विपक्षी दलों द्वारा उनसे दूरी बनाए रखे जाने के पीछे इन मामलों में उनकी कमजोर स्थित ही एक बड़ा कारण है. कांग्रेस से चुनावी निकटता विपक्ष को अपने लिए घातक महसूस करा रहा है.
खेल बिगाड़ने का काम न करे गुटबाजी…!
लोकसभा चुनाव-2019 में अपनी पार्टी की स्थिति सुधारने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की रणनीति तो असरकारक जरूर हैं, बशर्ते पार्टी की अंदरूनी गुटबाजीकांग्रेस में आई प्रियंका : कितना असरकारक होगा राहुल का यह कदम!कांग्रेस में आई प्रियंका : कितना असरकारक होगा राहुल का यह कदम!कांग्रेस में आई प्रियंका : कितना असरकारक होगा राहुल का यह कदम!कांग्रेस में आई प्रियंका : कितना असरकारक होगा राहुल का यह कदम! उनका खेल बिगाड़ने का काम न करे. भाजपा और प्रधान मंत्री मोदी द्वारा कांग्रेस पर “परिवारवाद और गांधी परिवार का वर्चस्व” होने का लगाए जाने वाले आरोपों का कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं पर कभी कोई असर नहीं पड़ने वाला है. क्योंकि इस सच्चाई से वे सभी वाकिफ हैं कि कांग्रेस का अस्तित्व तभी तक है, जब तक गांधी परिवार नेतृत्व में है. गांधी परिवार का नेतृत्व गया तो कांग्रेस में ‘यादवी संघर्ष’ छिड़ जाएगा और नेतृत्व के लिए पार्टी का बलिदान हो जाएगा. गांधी परिवार की बैसाखी कांग्रेस के लिए अपरिहार्य बन चुकी है.
– कल्याण कुमार सिन्हा