*कल्याण कुमार सिन्हा-
चुनावी रणनीति : हथकंडे या कलाकारी? : हमारे नेताओं के चरित्र में कोई सुधार के लक्षण दिखाई नहीं दे रहा. नेता पक्ष के हों या विपक्ष के, देश हित या जन हित में दलगत स्वार्थ से ऊपर उठना किसी ने नहीं सीखा. सत्ता में बैठे नेता, चाहे वे प्रधानमंत्री हों, या मुख्यमंत्री, विपक्ष को जरूर सीख देते नजर आते हैं कि ‘देशहित के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर बातें करनी चाहिए, या संबंधित मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए.’
विपक्ष में बैठे नेता घटना, दुर्घटना, जाति, समुदाय अथवा सम्प्रदाय के मामले सामने आते ही, उसे तूल देने से जरा भी नहीं चूकते. वहीं अपनी गलती, कमियों या कमजोरियों को ढकने की कोशिशों में सत्ता पक्ष के लोग भी भी पीछे नहीं रहना चाहते. यह दोनों ही कलाकारी केवल आम लोगों को गुमराह करने के लिए किए जाते हैं. इससे उनके समर्थकों को निश्चय ही थोड़ी ऊर्जा मिल जाती है. लेकिन यह आम लोगों को दिग्भ्रमित करने का ही हथकंडा होता है.
इन दिनों सोशल मीडिया से भी ऐसी राजनीतिक कलाकारी को बहुत अधिक बढ़ावा मिल रहा है. इसमें उनके समर्थक भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. कुछ विवादास्पद मामलों में तो टीवी न्यूज मीडिया और अखबारों के रिपोर्टरों-पत्रकारों को भी बैठे-बिठाए मसाला उपलब्ध हो रहा है. उन्हें भी राजनीतिक विद्वेष से भरी चटपटी खबरें परोसने में अधिक मशक्क्त नहीं करनी पड़ रही. साक्ष्य के लिए ट्विटर या इंस्टाग्राम पर नेताओं और उनके समर्थकों की टिप्पणियों का हवाला देकर वे भी अपनी कलाकारी दिखा जाते हैं.
लोकतांत्रिक समाज में राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए ऐसे हथकंडे आम भले ही हो गए हों, लेकिन इसे नैतिक तो बिलकुल ही नहीं कहा जा सकता. देश में जब-जब चुनाव का मौसम शुरू होने को होता है, पक्ष-विपक्ष दोनों ओर से यह कलाकारी शुरू हो जाती है. फिलहाल देश में पांच राज्यों के विधानसभा के लिए चुनाव कैंपेन में ऐसी ही कलाकारी देखने को मिल रहे हैं. झूठे दावे, झूठे वादे, झूठी तोहमतें, धमकियां, आरोप-प्रत्यारोपों के बीच एक-दूसरे पर ओछी टिप्पणियों की शोर में आम जनता की समस्या और राज्य हित अथवा देश हित की कोई बात ही नहीं सुनाई दे रही.
ऐसे सारे हथकंडे चुनाव जीतने के लिए अपनाए जाते हैं. यह राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति का रैलिंग पॉइंट बन गया है. किसी भी पक्ष को इस बात की कोई परवाह नहीं रहती कि इससे देश में सामाजिक विद्वेष पैदा होगा या साम्प्रदायिक सदभाव बिगड़ेगा. टीवी न्यूज मीडिया और प्रिंट मीडिया भी दोनों पक्ष की इन अनर्गल प्रलापों को परोस कर अपनी निष्पक्षता प्रदर्शित करने का मौका नहीं छोड़ना चाहता.
इतना ही नहीं, अपराधियों की मदद से चुनाव जीतने के अनेक उदाहरण तो साठ – सत्तर के दशक से ही सामने आने लगे हैं. नेताओं को चुनाव जिताते-जिताते ये अपराधी संबंधित पार्टी के चुनाव चिह्न पर खुद ही सांसद-विधायक और नेता बन चुके हैं. राजनीति के अपराधीकरण का सिलसिला इसी से शुरू हो गया है. चुनाव जीतने के लिए अपराधियों, नक्सलियों, समाज विरोधी ताकतों, आतंकवादियों और यहां तक कि देश को विभाजित करने की मंशा रखने वाली शक्तियों के अलावा विदेशी ताकतों का सहारा लेने की बात भी सामने आने लगी हैं.
अभी-अभी पंजाब में मतदान एक ऐन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल पर खालिस्तानियों की मदद से पंजाब में सत्ता हासिल करने का उनके पुराने ख्यातनाम कवि मित्र ने आरोप लगाया. इससे पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के उत्तर प्रदेश और बिहार के ‘भइयों’ जैसे शब्द के साथ किए गए आह्वान भी नागवार लगने वाला रहा. उन्हें सफाई देनी पड़ी.
उत्तराखंड में चुनाव प्रचार के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी पीछे नहीं रहे, उन्होंने कांग्रेस पर ऐसी हलकी टिप्पणी कर दी कि विवाद पैदा हो गया. उससे आहत नेता पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सधे शब्दों में जवाब दिया- ‘उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पार्टी की व्याख्या जिस जानवर से की है, हमारे यहां तो उसे देवताओं का चौकीदार मानकर भैरव के रूप में पूजा जाता है.’
उत्तर प्रदेश में सपा नेता अखिलेश यादव का मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा नेताओं के साथ विवादास्पद वाकयुद्ध कुछ के लिए मनोरंजन तो अनेक लोगों में गुस्सा या भ्रम पैदा करने वाला रहा है. इन चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी टिप्पणियां भी कुछ लोगों को नागवार गुजरी हैं.
भारतीय चुनाव आयोग के लिए भी नेताओं के विवादास्पद बोल सिरदर्द बने रहते हैं. चेतावनी देने कर उन्हें चुनाव प्रचार से कुछ समय के लिए अलग कर देने के अलावा संभवतः और कोई प्रभावी शक्ति आयोग के पास नहीं होना, ऐसे प्रलापों पर रोक लगाने से उसे असमर्थ बना देते हैं. चुनाव प्रचार के ऐसे तौर-तरीके निश्चय ही ओछी राजनीतिक सोच के परिचायक ही कहे जाएंगे.
*कल्याण कुमार सिन्हा-