‘गोवारी’ जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का फैसला रद्द

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'गोवारी' जाति

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में ST के लिए किए गए प्रावधानों में हाईकोर्ट के हस्तक्षेप को अनुचित माना

नई दिल्ली/मुंबई : सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने ‘गोवारी’ जाति को अनुसूचित जनजाति (ST) में शामिल करने के बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है. सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट किया है कि संविधान में ST के लिए किए गए प्रावधानों में हस्तक्षेप अनुचित है. सर्वोच्च अदालत का स्पष्ट मत है कि अदालतें अनुसूचित जनजाति पर राष्ट्रपति आदेश में बदलाव नहीं कर सकतीं. यह क्षेत्राधिकार केवल देश की संसद का है. 

Suprem Court’s observation-
‘Gond Gowari’ which is included in Entry 18 of Part-IX of Constitution (Scheduled Tribes) Order, 1950 do exist and is clearly different from caste ‘Gowari’.
The High Court was in error in holding that Tribe ‘Gond Gowari’ is an extinct Tribe which is not inexistence after 1911. The Entry ‘Gond Gowari’ being maintained in Constitution (Scheduled Tribes) Order, 1950 and was not deleted even after several Parliamentary Acts were passed to amend the Constitution (Scheduled Tribes) Order, 1950. The High Court clearly erred in holding that Scheduled Tribe ‘Gond Gowari’ is not in existence when the caste was included in Constitution (Scheduled Tribes) Order, 1950.

उसने कहा है कि ‘गोवारी’ और ‘गोंड गोवारी’ दो अलग और अलग जातियां हैं. जबकि बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा था कि गोवारी समुदाय को ST की स्थिति के लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार संविधान में ST के लिए किए गए प्रावधानों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने सपष्ट किया है कि हाईकोर्ट यह पता लगाने और यह तय करने के लिए सबूतों पर गौर नहीं कर सकता है कि एक विशेष जनजाति अनुसूचित जनजाति का हिस्सा है, क्योंकि यह प्रावधान संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में शामिल है. सुप्रीम कोर्ट की इस पीठ में जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस एम.आर. शाह हैं,  

इस मामले में हाईकोर्ट ने माना था कि –
(1) गोंड गोवारी 1911 से पहले पूरी तरह से विलुप्त हो चुके थे और इसका कोई निशान भी मराठा देश में सीपी और बरार या 1956 से पहले मध्य प्रदेश राज्य में नहीं था.
 
(2) 29 -10-1956 को ‘गोंड गोवारी’ के रूप में कोई जनजाति मौजूद नहीं थी, अर्थात राज्य के संबंध में संविधान (अनुसूचित जनजाति) के आदेश संख्या 1950 में प्रविष्टि संख्या 18 में महाराष्ट्र में इसके शामिल होने की तिथि को यह गोवारी समुदाय था, जिसे अकेले गोंड गोवारी के रूप में दिखाया गया था.

सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र स्टेट ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ अपील की थी. अपील में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित मुद्दों पर विचार किया गया –
1. क्या इन अपीलों को जन्म देने वाली रिट याचिका में उच्च न्यायालय जाति “गोवारी” के दावे पर सुनवाई कर सकता है, जिसे संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल नहीं किया गया है, और संविधान (अनुसूचित जनजाति) के आदेश संख्या 1950 में प्रविष्टि संख्या 18 में जो महाराष्ट्र राज्य में लागू है, इसे गोंड गोवारी शामिल किया गया और आगे इस तरह के दावे को साबित करने के लिए सबूत मांगने के लिए वो सक्षम है?

2. क्या बी. बसावलिंगप्पा बनाम डी. मुनिचिनप्पा, एआईआर 1965 एससी 1269 में इस न्यायालय की संविधान पीठ के फैसले का अनुपात ने उच्च न्यायालय को यह पता लगाने के लिए साक्ष्य लेने की अनुमति दी कि क्या ‘गोवारी’ और’गोंड गोवारी’ हैं और क्या बी. बसाविंगप्पा और बाद के संविधान पीठ के फैसले में महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद, (2001) 1 एससीसी 4 में संविधान पीठ के फैसले के अनुपात में कोई संघर्ष है या नहीं ?

3. क्या हाईकोर्ट इस मुद्दे के पक्ष में हस्तक्षेप कर सकता है कि गोंड गोवारी ‘जो अनुसूचित जनजाति आदेश, 1950 में उल्लिखित एक अनुसूचित जनजाति है, उसका आज तक संशोधित कोई अस्तित्व नहीं है और ये 1911 तक लुप्त हो गया था?  

4. हाईकोर्ट में यह निष्कर्ष दिया गया था कि 1911 से पहले ‘गोंड गोवारी’ जनजाति विलुप्त हो चुकी थी, क्या ये उन सामग्रियों से समर्थित है, जो उच्च न्यायालय के समक्ष रिकॉर्ड में थी?

5. क्या गोवारी जाति ही संविधान (अनुसूचित जनजाति) के आदेश संख्या 1950 में प्रविष्टि संख्या 18, सूची संख्या 28 में शामिल गोंड गोवारी है और उच्च न्यायालय को अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र के लिए गोवारी जाति को गोंड गोवारी जाति के रूप में घोषित करना चाहिए था?

6. क्या उच्च न्यायालय अपने दृष्टिकोण में सही है कि संविधान (अनुसूचित जनजाति) के आदेश संख्या 1950 में प्रविष्टि संख्या 18, सूची संख्या 28 में शामिल गोंड गोवारी जाति, गोंड की उप-जनजाति नहीं है, इसलिए, इसकी वैधता का परीक्षण 24.04.1985 के सरकारी प्रस्ताव में निर्दिष्ट आत्मीयता परीक्षण के आधार पर नहीं किया जा सकता है ?

संविधान पीठ सहित विभिन्न निर्णयों का उल्लेख करते हुए पीठ ने निम्नलिखित मुद्दों का जवाब दिया –
1. इन अपीलों को जन्म देने वाली रिट याचिका में उच्च न्यायालय जाति “गोवारी” के दावे पर सुनवाई कर सकता है, जिसे संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल नहीं किया गया है, और संविधान (अनुसूचित जनजाति) के आदेश संख्या 1950 में प्रविष्टि संख्या 18 में जो महाराष्ट्र राज्य में लागू है, इसे गोंड गोवारी शामिल किया गया और न ही वह आगे इस तरह के दावे को साबित करने के लिए सबूत मांगने के लिए सक्षम है.

2. बसावलिंगप्पा केस और मिलिंद के मामले में इस अदालत की संविधान पीठ के फैसले के अनुपात में कोई संघर्ष नहीं है.

3. उच्च न्यायालय इस मुद्दे में प्रवेश नहीं कर सकता था कि “गोंड गोवारी” अनुसूचित जनजाति का उल्लेख संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में किया गया था, जो कि 1976 तक संशोधित किया गया था, अब अस्तित्व में नहीं है और 1911 से पहले विलुप्त हो गया.  

4. हाईकोर्ट के निष्कर्ष में यह निर्णय दिया गया था कि “गोंड गोवारी” जनजाति 1911 से पहले विलुप्त हो चुकी थी, जो उन सामग्रियों द्वारा समर्थित नहीं है, जो हाईकोर्ट के समक्ष रिकॉर्ड में थी.

5. ‘गोवारी’ जाति ‘गोंड गोवारी’ के समान नहीं है. उच्च न्यायालय ने जाति ‘गोवारी’ को ‘गोंड गोवारी’ घोषित नहीं किया था.

6. हाईकोर्ट अपने दृष्टिकोण में सही नहीं है कि अनुसूचित जनजाति आदेश, 1950 की प्रविष्टि 18 में सूची नंबर 28 के रूप में दिखाई गई ‘गोंड गोवारी’ ‘गोंड’ की उप-जनजाति नहीं है. ‘गोंड गोवारी’ जाति प्रमाणपत्र की वैधता का परीक्षण उस आधार पर किया जाना चाहिए, जैसा कि सरकार के प्रस्ताव 24.04.1985 में निर्दिष्ट है.

सर्वोच्च न्यायालय ने नोट किया कि हाईकोर्ट ने फैसले में बी. बसावलिंगप्पा बनाम डी. मुनिचिनप्पा और अन्य, एआईआर 1965 एससी 1269 में इस न्यायालय के संविधान पीठ के फैसले पर बहुत अधिक भरोसा किया है. जिन परिस्थितियों में बी. बसावलिंगप्पा के मामले में अदालत ने सबूतों की तलाश को मंजूरी दी, वे उस मामले में अजीब थे और वर्तमान मामले के तथ्यों में कोई आवेदन नहीं है.

महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद और अन्य (2001)1 एससीसी4 का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति के आदेश में शामिल करने या हटाने, संशोधन या बदलने की शक्ति स्पष्ट रूप से और विशेष रूप से संसद के साथ निहित माना जाता है और इस सवाल से निपटने के लिए न्यायालयों के क्षेत्राधिकार का विस्तार नहीं किया जा सकता है कि क्या किसी विशेष जाति या उप-जाति या समूह या जनजाति का हिस्सा राष्ट्रपति के आदेश में उल्लिखित प्रविष्टियों में किसी भी एक में शामिल है.

 

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