राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो नहीं आ रही आड़े या मंत्रालयों के लिए हो रही सौदेबाजी
*कल्याण कुमार सिन्हा-
मत-सम्मत : महाराष्ट्र चुनाव में अप्रत्याशित जीत के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर महायुति में एकनाथ शिंदे गुट के कारण गतिरोध की स्थिति बन गई है. राज्य में सरकार के गठन में यह विलंब का कारण बन गया है. गठबंधन के तीसरे घटक एनसीपी के नेता उप मुख्यमंत्री रहे अजित दादा पवार ने भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी देवेंद्र फडणवीस को अपना समर्थन दे दिया है.
यह जग जाहिर है कि पिछली सरकार में मुख्यमंत्री पद एकनाथ शिंदे को मिल जाना भारतीय जनता पार्टी की रणनीति का हिस्सा था. भाजपा से कम विधायकों वाले शिंदे गुट ने सपने में भी नहीं सोचा था कि महाराष्ट्र शासन में इतनी बड़ी भूमिका निभाने का अनायास ऐसा मौका मिल जाएगा.
भाजपा ने राज्य के अपने प्रमुख नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, जो मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे, को राज्य के शासन में उनकी मदद के लिए उनका लेफ्टिनेंट बना दिया था. इतना ही नहीं, उनके गुट को वैधानिक रूप से असली शिवसेना की पहचान दिलाने से लेकर पार्टी सिम्बल मामले में और उद्धव ठाकरे की शिवसेना से मुकाबले में हर प्रकार से सक्षम बनाने में भी उनके गुट को मदद मिली.
ऐसे में अब एकनाथ शिंदे के लिए नैतिक रूप से भाजपा की बात मानने के अलावा दूसरा कोई बेहतर विकल्प नहीं है. हालांकि, इतना तय है कि एकनाथ शिंदे की तरफ से भी देवेंद्र फडणवीस को अगला मुख्यमंत्री बनाए जाने पर कोई ऐतराज नहीं है. लेकिन बात, सौदेबाजी को लेकर अटकी पड़ी हो सकती है. उनकी पार्टी को सरकार में बेहतर मंत्रालय मिले, यह मांग उनकी ओर से हो सकता है, की जा रही हो. ऐसी मांग अजित दादा की भी होगी. फिर भी शिंदे गुट के नेताओं के बयान भ्रम पैदा करने वाले तो हैं ही.
यदि एकनाथ शिंदे अपनी भूमिका और प्राथमिकताओं का निर्धारण भाजपा से अलग करना चाहते हों तो यह भी उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं, उनके समर्थन आधार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ उनके संबंधों पर ही निर्भर करेगा. वैसे उनके पास तीन विकल्प हैं. वे चाहें तो केंद्र में मंत्री बनें, उप मुख्यमंत्री बनाना मंजूर करें या नाराज होकर महायुति से अलग हो जाएं. आइए, उनके इन तीनों विकल्पों की मीमांसा करें –
केंद्र में मंत्री बनने का विकल्प :
– केंद्र में मंत्री बनने से राष्ट्रीय स्तर पर उनकी साख बढ़ सकती है और उन्हें भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर मिल सकता है.
– यह विकल्प उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति से कुछ हद तक दूर कर सकता है, जिससे उनकी राज्य स्तर पर पकड़ कमजोर हो सकती है.
– यदि वे दीर्घकालिक राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं, तो यह विकल्प आकर्षक हो सकता है.
महाराष्ट्र में उपमुख्यमंत्री बनना :
– महाराष्ट्र में उपमुख्यमंत्री का पद उन्हें राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण शक्ति और प्रभाव बनाए रखने का अवसर देगा.
– यह उनकी पार्टी और समर्थकों के साथ निकटता बनाए रखने में मदद करेगा.
– यदि वे महाराष्ट्र की राजनीति में लंबी अवधि तक सक्रिय रहना चाहते हैं, तो यह विकल्प बेहतर हो सकता है.
– लेकिन इससे उनकी छवि धूमिल हो सकती है.
– वे अपने सबसे प्रबल विरोधी शिवसेना (यूबीटी) की आलोचना और तंज का हमेशा शिकार बनाते रह सकते हैं.
निष्कर्ष
यह निर्णय इस बात पर निर्भर करेगा कि वे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को किस प्रकार देखते हैं. भाजपा और शिंदे गुट के बीच सत्ता संतुलन और संभावित समझौतों का भी इसमें बड़ा योगदान होगा. अगर उन्हें भरोसा है कि केंद्र में मंत्री बनकर वे महाराष्ट्र में भी प्रभाव बनाए रख सकते हैं, तो वे उस विकल्प को चुन सकते हैं.
वहीं, अगर राज्य स्तर पर उनकी पकड़ और सत्ता प्राथमिकता है, तो उपमुख्यमंत्री का पद उनके लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है.
अगर एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र की राजनीति में ही खुद को सक्रिय रखना चाहते हैं तो वे डिप्टी सीएम बनने को भी राजी हो सकते हैं. इस तरह से महाराष्ट्र की सरकार में उनकी सीधी दखल रहेगी, वे राज्य में रहकर अपनी पार्टी को भी और ज्यादा मजबूत कर पाएंगे और शानदार प्रदर्शन के दम पर कई बड़े मंत्रालय भी अपनी झोली में रखेंगे. यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि देवेंद्र फडणवीस ने भी सीएम पद छोड़ डिप्टी का पद स्वीकार कर लिया था, ऐसे में अगर ईगो बीच में ना आए तो शिंदे, फडणवीस के साथ मिलकर महायुति को लीड कर सकते हैं.
यदि नाराज होकर समर्थन वापस लेना चाहें शिंदे..!
अगर किसी भी स्थिति में एकनाथ शिंदे इस तीसरे विकल्प को चुनते हैं, जानकार मानते हैं कि यह उनके लिए सियासी रूप से आत्मघाती सिद्ध हो सकता है. असल में किसी जमाने में राज ठाकरे ने भी ऐसे ही शिवसेना से अलग होकर अपनी हिंदू राजनीति आगे बढ़ाने का फैसला किया था. आज उनकी पार्टी का ऐसा हाल है कि सभी सीटों पर जमानत जब्त हो गई.
ऐसे में अगर एकनाथ शिंदे भाजपा से अपना समर्थन वापस भी लेते हैं, उस स्थिति में उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं बचते. क्योंकि बिना दूसरे सहयोगी दलों उनके पास आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त वोट बैंक नहीं है. उद्धव के साथ फिर हाथ मिलाने का तो वैसे भी कोई सवाल पैदा नहीं होता. उद्धव के आगे वहां उनका अस्तित्व ही नहीं बचेगा.