महाराष्ट्र दिवस पर आलेख :
विनोद देशमुख
आज महाराष्ट्र की स्थापना के 59 वर्ष पूरे हुए. इसके साथ ही विदर्भ का महाराष्ट्र में जबरन विलय कर दिया गया. लेकिन अब तक इस जबरदस्ती से छुटकारा पाने का दूर-दूर तक कोई आसार नहीं नजर आता. यह विदर्भ की जनता का बड़ा भारी दुर्भाग्य है. अब पृथक विदर्भ राज्य की हुंकार “जय-जय महाराष्ट्र माझा…” की धुन में गुम होती जा रही है.
फिलहाल देश में चल रहे लोकसभा चुनाव का ही उदाहरण लें. सत्ता के दावेदार दोनों ही प्रमुख दलों ने इस बार तो पृथक विदर्भ की मांग की ओर ध्यान देना गंवारा नहीं किया है. कहने के लिए तो नागपुर से कांग्रेस के उम्मीदवार नाना पटोले ने आश्वासन तो दिया है. (भाजपा सांसद के रूप में वे एक निजी विधेयक ला चुके हैं.) लेकिन उसका कोई महत्त्व नहीं है. पटोले पहले भाजपा में ही थे. बाद में वे वापस कांग्रेस में आए. उनकी पार्टी कांग्रेस ने मन रखने के लिए भी कभी पृथक विदर्भ की मांग का समर्थन नहीं किया है. उलटे, जब-जब पृथक विदर्भ राज्य के निर्माण की संभावना बनी, तब-तब कांग्रेस के नेताओं ने ही इसमें बाधा उत्पन्न किया. यह इतिहास बताता है. अब तक ऐसे छह अवसर आए जब पृथक राज्य का सपना साकार हो सकता था, लेकिन सभी अवसर पर कांग्रेसी नेताओं ने ही अड़ंगा डाला. विदर्भ का एक दुर्भाग्य यह भी है कि इसमें विदर्भ के नेता ही बाधा बने.
एक के बाद एक अवसर, जो जाया होता गया
पहला अवसर : भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के एक सप्ताह पहले 8 अगस्त 1947 को ‘अकोला करार’ सामने आया. उसके अनुसार, यदि महाराष्ट्र के साथ रहना गंवारा नहीं हुआ तो विदर्भ को पृथक राज्य मान्य करने की बात थी. लेकिन पश्चिम महाराष्ट्र के कांग्रेस नेताओं ने विदर्भ में हिंदी भाषियों का वर्चस्व हो जाने का भय दिखा कर 1953 में ‘नागपुर करार’ किया. और सब्जबाग दिखा कर विदर्भ को महाराष्ट्र में ही कायम रखने में सफल हो गए. इसमें विदर्भ के ही कांग्रेस नेता उनके हाथों के मोहरे बने. सत्ता और कुर्सी का लालच देकर उन्हें पृथक विदर्भ के विरुद्ध कर लिया गया.
दूसरा अवसर : तीन साल बाद ही 1956 में जस्टिस फजल के नेतृत्व में बने ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने विदर्भ को पृथक राज्य बनाने की सिफारिश की थी. लेकिन कांग्रेस नेताओं ने ही भाषावार प्रांत गठन की अवधारणा को धता बताते हुए विदर्भ के साथ एक बार फिर छल किया. उन्होंने अनेक हिंदी भाषी राज्य को अस्तित्व में आने में मदद की, लेकिन इसके लिए उन्होंने सीमावर्ती बेलगांव, कारवार, निपाणी, छिंदवाड़ा, बैतूल, जबलपुर जैसे मराठी भाषी क्षेत्रों को विदर्भ से निकल जाने में मदद की. यह सारे मराठी भाषी इलाके कर्नाटक और हिंदी भाषी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के आंग बन कर रह गए. इससे पता चलता है कि महाराष्ट्रीयन कांग्रेसी नेताओं ने भाषायी राज्य के नाम पर कितना बड़ा धोखा विदर्भ के साथ किया था.
तीसरा अवसर : तीसरी बार विदर्भ आंदोलन के सबसे बड़े नेता के साथ की गई धोखाधड़ी..! 1980-84 की बात है, इंदिरा गांधी ने “विदर्भ वीर” जाम्बुवंतराव धोटे को कांग्रेस में शामिल होने पर विदर्भ पृथक राज्य देने की तैयारी दिखाई थी. लेकिन विदर्भ के ही कांग्रेसी नेता वसंतराव साठे और एन.के.पी. सालवे ने कांग्रेस के बहुमत का मुद्दा उठा कर यह होने नहीं दिया. इससे निराश होकर जांबुवंतराव ने अंततः कांग्रेस छोड़ दिया.
चौथा अवसर : राजीव गांधी ने पृथक विदर्भ राज्य बनाना लगभग तय ही कर दिया था. लेकिन महाराष्ट्र और विदर्भ दोनों ही हाथ से जाने का भय दिखा कर विदर्भ राज्य के निर्माण मार्ग रोक दिया गया. इस कार्य में भी फिर विदर्भ के ही साठे-सालवे जोड़ी ने बाधा डाली थी. साठे ने तो अपने अंतिम दिनों में अपनी यह भूल स्वीकार भी की थी.
पांचवां अवसर : अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में भाजपा ने उत्तराखंड, छतीसगढ़ और झारखंड तीन नए राज्यों का निर्माण किया. लेकिन वर्षों पूर्व भाजपा के सम्मेलन में पारित पृथक विदर्भ राज्य का संकल्प तब भी अस्तित्व में नहीं आया. भाजपा के तत्कालीन नेताओं ने भी इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया. बाद में बनवारीलाल पुरोहित ने प्रस्ताव रखा भी, लेकिन तब तक भाजपा, शिवसेना के साथ गठजोड़ कर चुकी थी. शिवसेना के विरोध का हवाला देकर भाजपा नेता भी खामोश रहे. यह स्थिति आज तक बनी हुई है.
छठा अवसर : प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पृथक तेलंगणा राज्य तो बना, लेकिन इसके पीछे चंद्रशेखर राव का निर्णायक आंदोलन था. ऐसा कोई मुद्दा विदर्भ में तब भी नहीं बना और कांग्रेस ने विदर्भ की फिर परवाह नहीं की.
महाराष्ट्र की गुलामी के साठ वर्षों के काल में विदर्भ राज्य की मांग तो कायम है, लेकिन अपनी उसी स्थिति में नहीं है, जो साठ वर्ष पूर्व थी. पिछले 72 वर्षों में पूरे छह अवसर आए जब पृथक विदर्भ का सपना पूरा हो सकता था, लेकिन यह अवसर गवां दिए गए. तब से अब तक पृथक विदर्भ की मांग का आंदोलन तो जारी है, लेकिन मृगमरीचिका ही बनी हुई है. कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अब विदर्भ की भावनाओं से खेल कर इसे सत्ता की सीढ़ी बनाती रही हैं. दोनों को दोनों हाथों में लड्डू चाहिए, अर्थात विदर्भ और महाराष्ट्र दोनों पर इन्हें एक साथ आधिपत्य चाहिए. दोनों के लिए महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए विदर्भ एक मोहरा भर बन कर रह गया है.
तेलंगणा हो या झारखंड या उत्तराखंड, इन राज्यों के लिए जैसी निर्णायक लड़ाई लड़ी गई, वैसी लड़ाई विदर्भ में कभी लड़ी नहीं जा सकी. जब-जब विदर्भ आंदोलन जोर पकड़ा, सत्ता और कुर्सी के लालच दिए गए और नेता फंसते चले गए. इस कारण विदर्भ राज्य का आंदोलन कमजोर पड़ता गया. इसके साथ ही गुलामी की जंजीर में फंसी विदर्भ की जनता भी अब प्रत्येक 1 मई को महाराष्ट्र स्थापना दिवस मनाने को और “जय-जय महाराष्ट्र माझा, जय-जय महाराष्ट्र माझा, गर्जा महाराष्ट्र माझा” गाने को मजबूर है. साथ ही विदर्भ की मांग अब एक विनंती सी बनती जा रही है- ” मला विदर्भ द्या.”
– विनोद देशमुख (वरिष्ठ पत्रकार)