सिंधुताई

सिंधुताई सपकाल : नहीं रहीं बेसहारा और अनाथों की पालनहार

महाराष्ट्र
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*अश्विन शाह-
वर्धा : अनाथों की आई अर्थात मां- सिंधुताई सपकाल का 4 जनवरी को पुणे के गैलेक्सी अस्पताल में निधन हो गया. वर्धा जिले की इस 75 वर्षीय बेटी ने अपनी जीवन यात्रा अत्यंत गरीबी और कठिनाइयों की बीच शुरू की थी.

महाराष्ट्र के वर्धा जिले के पिंपरी (मेघे) गांव के चरवाहे अभिमान जी साठे के घर 14 नवंबर 1948 को जन्मी बालिका ‘चिंधी’ के नाम से पुकारी जाती थी. लेकिन जीवन के अत्यंत कठिन दौर में उनके भीतर समाई मातृत्व और ममता ने समय के साथ उन्हें हजारों अनाथ बच्चों की आई यानी मां बना दिया. वे उन अनाथों के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, व स्वास्थ्य के लिए ऐसी मददगार मां बनीं कि यही उनकी पहचान बन गई.

सिंधुताई का विवाह 12 वर्ष की आयु में 30 वर्षीय हरबाजी सपकाल से हुआ था. जीवन संघर्ष में गांव वालों के लिए गाय-भैंस के गोबर के साहूकार की मुफ्तखोरी का विरोध ऐसा भारी पड़ा कि बहकावे में आकर पति ने ही घर-बदर उस हालत में कर दिया, जब वे गर्भ से थीं. पिता के निधन के साथ ही मायके से नाता पहले ही छूट चुका था. ससुराल ने भी मुंह मोड़ लिया. ऐसी कठिन परिस्थिति में सिंधुताई ने एक स्मशान को अपना ठिकाना बनाया. वहीं पत्थर से गर्भनाल काट कर शिशु को जन्म दिया. अपना और शिशु का पालन उन्होंने आसपास के गांव के मंदिरों में भजन गाकर और रेलवे स्टेशन एवं रेलगाड़ी में भीख मांग कर करने लगी. इसी क्रम में रेलगाड़ी में भीख मांगते हुए वे पुणे जा पहुंचीं.

यहीं से सिंधुताई के अनाथों की मां बनने की कहानी शुरू हुई. वे अपने मधुर स्वर में भजन गाकर भीख में खूब पैसे कमा लेती थीं. लेकिन, जब उन्होंने देखा कि कई सारे उनके जैसे हालात से जूझ रही महिलाएं और अनाथ बच्चे भीख में दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे तो उनका मातृत्व छलक पड़ा और वे सभी के लिए भोजन, वस्त्र, शिक्षा के उपाय के साथ उनके लिए आश्रय की व्यवस्था भी करने लगी. स्वयं बेसहारा होते हुए भी अपने जैसे बेसहारों का सहारा बन गईं. बेसहारा अनाथ बच्चों, महिलाओं और वृद्धजनों की पालनहार बन गईं. अनेक अनाथ बच्चे-बच्चियां उनकी परवरिश से पढ़-लिख कर आज अच्छी नौकरियों में हैं. उनकी शादी भी उन्होंने करवाई.


निधन से 1 माह पूर्व वर्धा (सावंगी ) स्थित दत्ताजी मेघे आयुर्विज्ञान अभिमत विश्वविद्यालय ने ऑनलाइन दीक्षांत समारोह में सिंधुताई को ‘डी लिट’ की उपाधि से गौरवान्वित किया था. उन्होंने अपने पैतृक जिले वर्धा के इस विश्वविद्यालय द्वारा बड़ा सम्मान दिए जाने को अपने ‘मायके की ओर से दिया गया सम्मान’ बताते हुए अत्यधिक खुशी जाहिर की थी. अपने जीवन काल में उन्हें 800 से अधिक संस्थाओं ने सम्मानित किया. उनके जीवन चरित्र पर एक फिल्म ‘मी सिंधुताई सपकाळ’ के नाम से बनी और काफी चर्चित भी हुई. ऐसी महान सामाजिक योद्धा को सम्पूर्ण महाराष्ट्र आज नम आंखों से नमन कर रहा है.

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