ईपीएफ पेंशन मामले में केंद्रीय श्रम मंत्रालय व ईपीएफओ की बदनीयती की उड़ी धज्जियां

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केरल उच्च न्यायालय का हाल का फैसला केंद्र के मोदी सरकार को यह सोचने पर विवश कर देने वाला है कि उसका श्रम मंत्रालय और उसके अधीन ईपीएफओ (कर्मचारी भविष्य निधि संगठन) किस कदर लाखों सेवानिवृत कर्मचारियों के प्रति बेईमानी भरा रवैया अपना रहा है.
केरल के ही लोकप्रिय मलयालम अखबार ‘मातृभूमि’ में 13 अक्टूबर को प्रकाशित सम्पादकीय में केरल उच्च न्यायालय के फैसले पर बेबाक टिप्पणी की है. इस फैसले ने ईपीएफओ एवं इसको नियंत्रित करने वाले केंद्रीय श्रम मंत्रालय को एक बड़ा झटका दिया है, जो विभिन्न कारणों का हवाला देकर सेवानिवृत कर्मचारियों को वैध पीएफ पेंशन देने के मार्ग में रोड़े बने हुए थे.
‘मातृभूमि’ के सम्पादकीय का यह हिन्दी अनुवाद मध्य और उत्तर भारत के लोगों के लिए महत्वपूर्ण है. क्योंकि इन क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाले अखबार और मीडिया कहलाने वाले हिंदी अथवा अंग्रेजी न्यूज चैनल लाखों सेवानिवृत कर्मचारियों के हितों से संबंधित अदालती फैसलों की जानकारी आने देने से रोकने का काम करते रहे हैं…


केरल उच्च न्यायालय के फैसले ने ईपीएफओ एवं इसको नियंत्रित करने वाले केंद्रीय श्रम मंत्रालय को एक बड़ा झटका दिया है, जो विभिन्न कारणों का हवाला देते हुए कर्मचारियों को वैध पीएफ पेंशन देने से इनकार कर रहे थे. हालांकि 15,000 से अधिक अपीलकर्ताओं से जुड़े 507 याचिकाओं के निबटारे में काफी लंबा समय लगा, डिवीजन बेंच द्वारा घोषित निर्णय कर्मचारियों को बहुत आश्वस्त करता है. यह उनकी प्रतिष्ठा/सम्मान को दोहराता है. उच्च न्यायालय ने न केवल पीएफ अधिनियम में 1 सितंबर 2014 से प्रभावी रूप से संशोधित संशोधन को समाप्त कर दिया, बल्कि पीएफ संगठन द्वारा समय-समय पर जारी किए गए विभिन्न आदेशों और परिपत्रों को भी समाप्त कर दिया, ताकि पीएफ सदस्यों को लाभ मिल सके.

इस मामले में कि पेंशन के लिए माना गया वेतन वास्तविक वेतन पर होना चाहिए, और इस पर कोई प्रतिबंध लगा देना अवैध है और विकल्प के लिए निर्धारित कट ऑफ डेट को माफ कर दिया जाना चाहिए. केरल उच्च न्यायालय ने पहले भी 2011 में अपना निर्णय सुनाया था. सिंगल बेंच ने कहा था कि कोई कट ऑफ डेट नहीं होनी चाहिए और वास्तविक वेतन पर योगदान स्वीकार किया जाना चाहिए और आनुपातिक पेंशन का भुगतान किया जाना चाहिए. इसे चुनौती देने के बाद, पीएफ अधिकारियों द्वारा दायर अपील को अक्टूबर 2014 में डिवीजन बेंच द्वारा खारिज कर दिया गया था. इस तरह की घटनाओं को देखते हुए, अधिकारियों ने कुछ समय पहले पीएफ पेंशन योजना में संशोधन किया था.

केरल उच्च न्यायालय डिवीजन बेंच के फैसले के खिलाफ अपील पीएफ अधिकारियों द्वारा दायर की गई थी, जिसे अप्रैल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था. इसके बाद हिमाचल उच्च न्यायालय डिवीजन बेंच से पीएफ संगठन के पक्ष में एक फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में खारिज कर दिया था. 4 अक्टूबर 2016 के अपने फैसले में, पेंशन निधि में योगदान के लिए वेतन प्रतिबंध लगाकर और वेतन वृद्धि के अनुपात में योगदान स्वीकार करने के लिए कट ऑफ डेट तय करने को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित किया था. कर्मचारियों के कल्याण के लिए पेश की गई एक योजना को कल्याणकारी रहने के लिए गलत व्याख्या नहीं की जानी चाहिए, सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी गलतफहमी के बिना अपने स्पष्ट फैसले में चेतावनी दी थी.

हालांकि, न केवल (निर्दयी) पीएफ संगठन ने संशोधन को स्वीकार करने और सम्मानित करने के लिए अगस्त 2014 में किए गए संशोधनों को वापस लेने के लिए परेशान किया, बल्कि निर्णय को लागू करने के पूर्व में जारी किए गए परिपत्र के माध्यम से फैसले से निकलने वाले लाभों को सीमित करने का भी प्रयास किया तथा सुप्रीम कोर्ट के फैसले से लाभ के दायरे से पेंशनभोगियों के बहुमत को भी वंचित किया. पीएफ संगठन की देखरेख और नियंत्रण के तहत संगठनों के ट्रस्ट द्वारा भविष्य निधि मामलों को संभालने का अभ्यास 5 दशकों से अधिक समय तक प्रचलित था. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के लाभ से ऐसे संगठनों के कर्मचारियों को छोड़कर मूर्खतापूर्ण परिपत्र जारी करने का उदाहरण देखा जा सकता है. संसद में मजबूत विरोध के बावजूद, श्रम मंत्रालय ने ईपीएफ संगठन की गलतियों को सुधारने के लिए भी प्रयत्न नहीं किया.

ईपीएफओ विरोधी श्रम नीतियों के लिए निरंतर झुकाव और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की भावना को समझने की कोशिश किए बिना बेवकूफ़ बनाने की कोशिश कर रहा है, जो कि वर्तमान में केरल उच्च न्यायालय के फैसले का कारण बना है. 1 सितंबर 2014 से प्रभावी रूप से संशोधित संशोधन को समाप्त करके, न्यायपालिका ने लाखों कर्मचारियों और पेंशनरों को अन्याय से बचाने की कोशिश की है.

‘मातृभूमि’ ने इस विषय से संबंधित कई समाचार और लेखों की सूचना दी है और प्रकाशित किया है. हालांकि बहुत देर हो चुकी है, यह उम्मीद की जाती है कि ईपीएफओ और केंद्रीय श्रम मंत्रालय गलतियों को सुधार लेगा और श्रम कल्याण उपायों को लागू करेगा.

न्यायपालिका संभवतया इसी ओर इशारा कर रही है.

(विशेष : मलयालम अखबार ‘मातृभूमि’ में 13.10.2018 को प्रकाशित सम्पादकीय का यह हिन्दी अनुवाद श्री नीरज भार्गव ने किया है. श्री भार्गव ईपीएफओ के पेंशन से जुड़े मामलों में सेवानिवृत्तों के पैरवीकार अधिवक्ता हैं और इन मामलों को लेकर श्री प्रवीण कोहली, नई दिल्ली द्वारा सोशल मीडिया पर आरंभ किए गए सेवा (SEWA) ग्रुप के मॉडरेटर भी हैं.)

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