सत्ता की भूख राजनीतिक दलों को बनाता जा रहा है समाजभक्षी

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विदर्भ भी झुलसा…!

– कल्याण कुमार सिन्हा

प्रगतिशील या पुरोगामी राज्य कहलाने वाला अब क्या महाराष्ट्र प्रतिगामी राज्य बनाता जा रहा है? पुणे के भीमा कोरेगांव मामले को लेकर जातीय हिंसा की आग देखते-देखते देश की आर्थिक राजधानी मुंबई सहित प्रदेश के अनेक शहरों सहित विदर्भ के छोटे शहरों तक फैल गई. सरकार सहित राज्य के बड़े नेता इस जातीय हिंसा को बाहरी तत्वों द्वारा अंजाम दिया जाना और प्रायोजित बता कर इस विभीषिका की आग को बुझाने का प्रयास कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि ‘बाहरी लोगों ने प्रदेश की जनता को भड़काकर माहौल बिगाड़ा.’

जातीय हिंसा से सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने का खेल

इसमें कोई शक नहीं कि राज्य में जातीय हिंसा को बढ़ावा देकर जातीय वैमनष्य पैदा करने का प्रयास राजनीतिक दलों द्वारा लगातार होता रहा है. अतः ऐसा आरोप आसानी से मढ़ा जाना आश्चर्य का विषय नहीं हो सकता. सत्ता की भूख सभी राजनीतिक दलों को समाजभक्षी बनाता जा रहा है. ऐसा लगता है कि इन्हें समाज के प्रति अपने दायित्वों का कोई अहसास नहीं रह गया है. सत्ता में बने रहने, सत्ता के निकट बने रहने या सत्ताधारियों को अपने महत्त्व का अहसास कराते रहने के लिए और सत्ता के लिए वर्तमान सत्ताधारियों को बदनाम करने व जनता की नज़रों में गिराने के लिए ही चालें चलते रहना मात्र ही राजनीतिक दलों का अभीष्ट बन जाए तो ऐसी ही परिस्थितियां पैदा होती रहेंगी और समाज को वैमनष्य और अविश्वास के गर्त में धकेलती रहेगी.

भीमा कोरेगांव की घटना से उपजी हिंसा की स्थिति पैदा करने वाले यदि बाहरी लोग थे तो ये बाहरी लोग कौन थे? इस हिंसा को प्रायोजित करने वाले कौन थे? इसे एक-दूसरे पर मढ़ने का नाटक भी शुरू हो चुका है. इसके लिए सभी पक्ष अपने-अपने एजेंडे के अनुसार बयानबाजी कर रहे हैं. यह सब नाटक हालांकि मात्र कुछ दिनों का है. इसका कोई परिणाम भी सामने आएगा, इसमें संदेह ही है. फिर भी उन नौटंकियों पर नजर डाल लें कि कौन क्या कह रहा है.

आरोपों-प्रत्यारोपों की राजनीति शुरू

इन सवालों के जवाब में कांग्रेस एवं कुछ अन्य विपक्षी दल राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा पर तथाकथित उसकी दलित विरोधी नीतियों को जिम्मेदार ठहराने में जुटे हैं तो दूसरा पक्ष कांग्रेस और वामपंथी दलों पर गुजरात के नवनिर्वाचित दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को आगे कर दंगे का स्वरूप देने की कोशिश करने वाले बता रहे हैं. इधर राज्य की पुलिस ने भी आनन-फानन में जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू से निष्काषित खालिद अंसारी के विरुद्ध मामला दर्ज कर लिया है. जबकि केंद्रीय मंत्री और भाजपा के सहयोगी रिपब्लिकन नेता रामदास आठवले ने जिग्नेश मेवाणी को क्लीन चिट दे दिया है. महाराष्ट्र में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने भीमा कोरेगांव में हिंसा के लिए देवेंद्र फड़नवीस सरकार पर हमले जारी रखते हुए शनिवार को कहा है कि जातीय संघर्ष के कारण महाराष्ट्र अराजकता और विध्वंस की ओर बढ़ रहा है.

अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों का अनुसरण तो नहीं!

देश में अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय की जनसंख्या सर्वाधिक है. कालांतर में हुए सामाजिक सुधार के बाद दलितों और पिछड़ों को समान मौलिक अधिकार सहित आरक्षण प्राप्त हैं. अंग्रेजों ने जिस साम्राज्यवादी नीति के साथ भारत में मुस्लिम अलगाववाद को भड़काया और ईसाई मिशनरियों एवं चर्च द्वारा सामाजिक भेदभाव के शिकार लोगों का मतांतरण कर उन्हें शेष समाज के विरुद्ध खड़ा किया, उसी का अनुसरण स्वतंत्र भारत में कुछ तत्व तो नहीं कर रहे, यह जांच और चिंता का विश्व है.

ऐसे तत्वों को दलित उत्थान या दलित कल्याण की कोई चिंता भी है, ऐसा तो नहीं लगता. उनका उपयोग ऐसी विध्वंषक परिस्थितियां पैदा कर मात्र अपने छुपे एजेंडे सफल बनाने के लिए ही किये जाने का स्पष्ट आभास जरूर मिल रहा है. सामाजिक सौहार्द के ताने-बाने को विच्छिन्न कर अपने विभाजनकारी उद्देश्यों को अंजाम देना ही उनका उद्देश्य जान पड़ता है.

विघटनकारी तत्वों के नापाक इरादों को विदर्भ को बचाने की जरूरत

ऐसे विघटनकारी तत्वों के नापाक इरादों को विदर्भ को बचाने की जरूरत है. चिंता विषय यह है कि ऐसे तत्व राजनीतिक दलों के भीतर हैं. ऐसे में विदर्भवादियों एवं विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े विदर्भ के नेताओं और कार्यकर्ताओं का दायित्व है कि वे विदर्भ में ऐसी परिस्थितियां पैदा होने रोकें. जब भी ऐसी परिस्थितियां पैदा करने की कोशिश हो तो उसमें अपने लोगों को झोंक देने से पहले कम से कम एक बार मिल-बैठ कर विचार तो कर लें.

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि सारे राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व अपने-अपने एजेंडों को लागू करने के लिए रणनीतिकारों की टोलियां बना रखी हैं. इन टोलियों का उद्देश्य मात्र ऐनकेन-प्रकारेण अपनी पार्टी का वर्चस्व विभिन्न राज्यों में कैसे बनी रहे अथवा कैसे बढ़े, बस इसी के लिए रणनीति तैयार करना होता है. उनके लिए यह मात्र ऐसी जंग है, जिसमें जीतना ही उनका अभीष्ट होता है. वह एजेंडा किस हद तक नापाक या सामाजिक सौहार्द को ध्वस्त करने वाला है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता. प्यार और जंग में सब जायज है, बस यही उनका सिद्धांत है.

विदर्भ हमेशा से सामाजिक समन्वय और जातीय सौहार्द के लिए पहचाना जाता रहा है. तमाम राजनीतिक उपेक्षाओं के बावजूद यदि विदर्भ आज कुछ भी प्रगति कर पा रहा है तो इसके पीछे विदर्भ का यही सामाजिक चरित्र है. लेकिन कोरेगांव को लेकर राज्य में आयोजित बंद के दौरान विदर्भ के गांवों तक जातीय हिंसा की आग फैलाने में विदर्भ के भी कुछ नेताओं की भूमिका केवल निंदा का ही नहीं, चिंता का विषय भी है. विकास के मार्ग के लिए ऐसे कुकृत्य हमेशा से अवरोधक होते रहे हैं. हिन्दू-मुस्लिम के बीच भेदभाव के जवाब में अब यदि दलित-मराठा अथवा दलित-गैरदलित का भेदभाव खड़े करने की कोशिश इसी प्रकार जारी रही तो राज्य और विदर्भ जैसा शांतिप्रिय क्षेत्र भी अराजकता की आग में झुलस जाएगा.

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