न्यायपालिका : EPS-95 पेंशनरों के भरोसे की कसौटी पर

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न्यायपालिका

आर.सी. गुप्ता मामले में 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था. यह फैसला सभी EPS-95 पेंशनरों के पक्ष में था. इसके अनुसार EPFO को पेंशनरों को उनके सेवाकाल के आखिरी वेतन के अनुसार पेंशन तय कर उन्हें बढ़ी पेंशन की सेवानिवृति दिन से बकाए की राशि का भी भुगतान करना था. इसके विरुद्ध भी EPFO ने कम से कम 10 SLP दायर किए थे, सुप्रीम कोर्ट ने सभी के सभी SLP खारिज कर EPFO द्वारा उच्च पेंशन निर्धारण और भुगतान के सारे अड़ंगे निपटा दिए थे. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने आर.सी गुप्ता मुकदमें के फैसले को स्वीकार भी कर लिया और तदनुरूप 27 हजार से अधिक पेंशनरों को उच्च पेंशन और एरियर्स का भुगतान भी शुरू कर दिया था. लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से उसने सुप्रीम कोर्ट के उसी फैसले को गलत बता दिया है…आश्चर्य की बात है कि EPFO के जिस रिव्यू पिटिशन पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई, वह तो केरल हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध दायर है. विद्वान न्यायाधीशों ने 24 अगस्त को EPFO की भ्रामक दलीलों से प्रभावित होकर सुप्रीम कोर्ट के आर.सी. गुप्ता मामले पर फैसले को गलत मान लिया और उसे आगे की सुनवाई के लिए बड़े बेंच के लिए रेफर कर दिया. उनका यह कदम अब यही साबित करता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की कोई अहमियत नहीं है. उसे कभी भी गलत ठहराया जा सकता है. इस प्रकार न्यायपालिका को ही दांव पर लगा दिया गया है…

पेंशनरों के हितों का जम कर “एनकाउंटर” करवाया है EPFO और सरकार ने

*कल्याण कुमार सिन्हा-
आलेख :
न्यायालयों के भंवर कहें, या मामले..! जो भी इस दायरे में आते हैं, उनसे सुनने को मिलता है- “न्यायपालिका पर मुझे पूरा भरोसा है.” समझ में नहीं आता कि अपना यह उदगार वे दिल से प्रकट कर रहे होते हैं, या न्यायपालिका को रिझाने लिए. ऐसे लोगों में राज नेता और ओहदेदार लोग ही अधिक होते हैं. क्योंकि इनकी कही यह बात मीडिया तुरंत आम लोगों तक पहुंचाती है और इससे न्यायपालिका को भी यह मान लेने में आसानी होती है कि वह भरोसेमंद है. लेकिन दुर्भाग्य या सौभाग्य से अदालती मामलों में जूझ रहे आम लोगों की भावनाएं क्या हैं, यह कभी सामने नहीं आतीं. मीडिया उन्हें तरजीह नहीं देता.

इसमें कोई दो राय नहीं कि जब अदालत का फैसला किसी के मनोनुकूल होता है, तब वह वाहवाही पर उतर आता है. लेकिन मनोनुकूल फैसला नहीं हुआ तो खुल कर अपनी भावनाएं व्यक्त करने से बचता है. राजनीतिक दलों से जुड़े विपक्ष हो या सत्ताधारी, दोनों पक्ष के लोगों की प्रतिक्रियाओं का उदाहरण दिया जा सकता है.

लेकिन जहां तक आम आदमी का सवाल है, उसके लिए अदालती दांव-पेंच समझना आसान नहीं होता. देश के 67 लाख से अधिक EPS-95 के अंतर्गत सेवानिवृत्त ऐसे ही लोग हैं, जो आज यह मानने को मजबूर हो रहे हैं कि देश की शीर्ष अदालत में उनके साथ “खेला” हो रहा है. पिछले दो-तीन वर्षों में तो ढाई लाख के करीब ऐसे वृद्ध पेंशनर्स न्याय का इंतज़ार करते हुए दुनिया छोड़ चुके हैं.

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) के तहत ऐसे 67 लाख देश के वरिष्ठ नागरिक, जो कल तक सुप्रीम कोर्ट को सब कुछ मान बैठे थे, उससे न्याय की आस लगाए बैठे थे, अब भगवान को याद करने लगे हैं. EPS-95 पेंशन मामले में पिछले सात वर्षों में अपने पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के कम से कम दो फैसले और केरल समेत विभिन्न हाईकोर्ट के 6 से अधिक फैसलों को EPFO और भारत सरकार द्वारा धता बताने की कोशिशें लगातार जारी हैं.

इसके साथ ही, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश यू.यू. ललित की अध्यक्षता वाली बेंच के पिछले ही माह के 24 अगस्त 2021 की व्यवस्था, वृद्ध पेंशनरों को भ्रमित कर गई है. उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि सुलझे मामलों को सुलझाने का यह कौन सा तरीका शीर्ष अदालत ने अपनाया है. विरोधी पक्ष (अर्थात पेंशनर्स) के वकीलों की दलील बिना सुने, सुनवाई की पिछली दो तिथियों में केवल EPFO की दी गई भ्रामक दलील के आधार पर मामले को बड़ी बेंच की सुनवाई के लिए भेज दिया जाना, पीड़ित पेंशनरों को आहत कर गया है. ऐसी व्यवस्था देने से पहले बेंच ने विरोधी पक्ष को अपनी बात रखने का 10 मिनट का वक्त देना जरूरी नहीं समझा. पेंशनर्स इसे यदि न्याय का “एनकाउंटर” (जैसे पुलिस करती है) मान रहे हैं, तो उनका क्या दोष…?

लोगों को यह समझना मुश्किल हो गया है कि दो जजों की बेंच ने आखिर 67 लाख EPS-95 पेंशनर्स से जुड़े मामले की सुनवाई स्वयं पूरी न कर, उसे सुप्रीम कोर्ट के तीन या इससे ज्यादा जजों की बेंच को क्यों रेफर कर दिया? क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है..? इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता वृद्ध पेंशनरों की नजर में कैसे कायम रह सकता है.

आर.सी. गुप्ता के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को न तो सरकार ने और न ही EPFO ने कोई सीधी चुनौती दी थी. फिर इसे बीच में क्यों लाया गया..? 1990 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के आधार पर इस दो सदस्यीय बेंच ने आर.सी. गुप्ता मामले पर फैसले को गलत बताने की कोशिश की है, लेकिन इसने इस तथ्य को ध्यान में नहीं रखा कि 1990 में ईपीएस 95 पेंशन योजना मौजूद ही नहीं थी और EPFO के आवेदन में मुद्दे ही अलग थे.

आर.सी. गुप्ता मामले में 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था. यह फैसला सभी EPS-95 पेंशनरों के पक्ष में था. इसके अनुसार EPFO को पेंशनरों को उनके सेवाकाल के आखिरी वेतन के अनुसार पेंशन तय कर उन्हें बढ़ी पेंशन की सेवानिवृति दिन से बकाए की राशि का भी भुगतान करना था. इसके विरुद्ध भी EPFO ने कम से कम 10 SLP दायर किए थे, सुप्रीम कोर्ट ने सभी के सभी SLP खारिज कर EPFO द्वारा उच्च पेंशन निर्धारण और भुगतान के सारे अड़ंगे निपटा दिए थे. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने आर.सी गुप्ता मुकदमें के फैसले को स्वीकार भी कर लिया और तदनुरूप 27 हजार से अधिक पेंशनरों को उच्च पेंशन और एरियर्स का भुगतान भी शुरू कर दिया था. लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से उसने सुप्रीम कोर्ट के उसी फैसले को गलत बता दिया है.

आश्चर्य की बात है कि EPFO के जिस रिव्यू पिटिशन पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई, वह तो केरल हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध दायर है. विद्वान न्यायाधीशों ने 24 अगस्त को EPFO की भ्रामक दलीलों से प्रभावित होकर सुप्रीम कोर्ट के आर.सी. गुप्ता मामले पर फैसले को गलत मान लिया और उसे आगे की सुनवाई के लिए बड़े बेंच के लिए रेफर कर दिया. उनका यह कदम अब यही साबित करता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की कोई अहमियत नहीं है. उसे कभी भी गलत ठहराया जा सकता है. इस प्रकार न्यायपालिका को ही दांव पर लगा दिया गया है.

विधि के जानकारों का मानना है कि आर.सी. गुप्ता मामले की योग्यता पर पुनर्विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है और न इन मामलों को तीन या अधिक न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजने की कोई आवश्यकता ही थी. वास्तव में, अगर बड़ी बेंच के लिए रेफर ही करना था तो केरल हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपीलीय याचिका के निपटारे के लिए भेजा जाना चाहिए था, जिसकी केंद्र सरकार और EPFO ने समीक्षा के लिए यह याचिकाएं दायर की थी.

इन याचिकाओं की आड़ में EPFO ने सुप्रीम कोर्ट से पेंशनरों के हितों का जम कर “एनकाउंटर” करवाया है. विभिन्न हाईकोर्ट के आदेश से 27 हजार से अधिक पेंशनरों को 2016 के आर.सी. गुप्ता मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार पुनरीक्षित उच्च पेंशन मिलने शुरू हो गए थे. EPFO बड़ी आसानी से उसे भी रुकवाने में सफल हो गया. इसके अलावा इस बीच और भी पैंतरे चला कर न केवल अवमानना याचिकाओं पर सुनवाई रुकवाई, बल्कि विभिन्न हाईकोर्ट में दायर मामलों की सुनवाई रुकवाने भी कामयाब हो गया.  

इस मामले को आम आदमी के नजरिए से समझने की जरूरत है. हालांकि मामला अभी जीवित है और बड़ी बेंच के सामने आने को है. तथापि, जिस तरह के दांव-पेंच चलाए जा रहे हैं, उससे तो आम लोगों की नजर में शीर्ष अदालत भी भागीदार बन गया है, साथ ही उसके फैसलों की अहमियत भी दांव पर लगा दी गई है. उसका कोई भी फैसला गलत करार दिया जा सकता है. देश की न्यायपालिका की विश्वसनीयता क्या इससे दांव पर नहीं लगी है?

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