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पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि तोड़ो, तिब्बत पर चीनी अधिपत्य की मान्यता खत्म करो

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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51 का उलंघन कर तिब्बत पर चीन द्वारा आधिपत्य को नेहरु सरकार ने दी थी स्वीकृति
देश की सांस्कृतिक विरासत, सामरिक हित, संयुक्त राष्ट्रसंघ के मान्य सिध्दान्त की चढ़ा दी गई थी बलि

आलेख : जयराम तिवारी
सत्ता के लिए तुष्टिकरण के तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, लेकिन अपनी संप्रभुता को गिरवी रखने के उदाहरण भारत के अलावा पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे. कोको द्वीप म्‍यांमार को उपहार में देना, संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद की स्‍थायी सदस्‍यता ठुकराना, पंचशील समझौता, अपनी जमीन को बंजर बताना, सिंधु जल समझौता ऐसे ही कुछेक उदाहरण हैं.

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1960 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्‍तानी राष्‍ट्रपति अयूब खां के बीच और बिचौलिए विश्वबैंक अध्यक्ष के समक्ष सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर करते हुए.

आजादी के तुरंत बाद के डेढ़ दशक भारतीय शासनकर्ताओं ने अपनी अदूरदर्शिता और कमजोर विदेश नीति के कारण देश के हितों के साथ ऐसे खिलवाड़ किए कि वह आज तक देश के लिए “राष्ट्रीय शर्म” बने हुए हैं. इनमें पाकिस्तान के साथ अमेरिका के दवाब में किया गया “सिंधु जल संधि” और दूसरा तिब्बत पर अवैध और अन्यायपूर्ण चीनी कब्जे को मान्यता देना था. यह मान्यता हमने तत्कालीन शासकों ने तब दी थी, जब हम चीन द्वारा धोखे से हमारे ऊपर हमला कर कर हमें पराजित कर चुका था. तत्कालीन भारत की नेहरू सरकार ने चीन द्वारा पीठ में छुरा घोंपने के बावजूद, हमें नीचा दिखाने के बावजूद अपनी सांस्कृतिक विरासत और सामरिक हित के विरुद्ध तिब्बत पर चीनी आधिपत्य को मान्यता दे दी.

सिंधु जल समझौता, सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के पानी को भारत और पाकिस्‍तान के बीच बांटने से जुड़ा है. समझौते के अनुसार सिधु, रावी, व्‍यास, चेनाब, सतलुज और झेलम नदियों को पूर्वी और पश्‍चिमी भाग में बांटा गया है. पूर्वी नदियों (सतलुज, व्‍यास और रावी) पर भारत का अधिकार है, जबकि पश्‍चिमी नदियों (सिंधु, चेनाब और झेलम) पर पाकिस्‍तान का अधिकार माना गया.

समझौते के तहत भारत अपनी छह नदियों का करीब 80 फीसदी पानी पाकिस्‍तान को देता है. भारत के हिस्‍से आता है केवल 19.48 फीसदी पानी. समझौते में यह प्रावधान भी है कि भारत बिजली व जल परिवहन के लिए पश्‍चिमी नदियों के पानी का इस्‍तेमाल कर सकता है. इसके बावजूद पाकिस्‍तान भारत की सिंचाई और बिजली परियोजनाओं पर आपत्‍ति जताता रहा है. हालांकि उसे हर बार मुंह की खानी पड़ती है.

लेकिन अंतराष्ट्रीय जगत में अब ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिससे अन्यायपूर्ण पुरानी संधियों को तोड़ने को अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत स्वीकार्य माना जाने लगा है. अमेरिका द्वारा हाल ही में इरान के साथ पुरानी संधि को तोड़ने को भी अंतर्राष्ट्रीय कानून/जगत में मान्य किया गया है.

पाकिस्तान के साथ 1960 का सिंधु जल समझौता एवं “चीन-भारत के बीच अवस्थित बफर सार्वभौम राज्य तिब्बत” पर चीन ने सैनिक कार्रवाई द्वारा अन्यपूर्ण आधिपत्य स्थापित किया था. जिसे भारत की नेहरु सरकार द्वारा 1960 की दशक में स्वीकृति दे दी गई थी, इन दोनों को अब हम तोड़ सकते हैं.

1. सिंधु जल संधि : सिंधु सहित पंजाब की 6 नदियों के पानी का न्यूनतम 50% पर प्रत्येक दृष्टिकोण से भारत का न्यायपूर्ण अधिकार बनता है.

1960 के दशक में विश्व में शीतयुध्द के समय ‘गतिशील तटस्थ’ भारत को डलेसियन नीति के कारण अमेरिका शक के दृष्टि से देखता था. विश्व बैंक सदा अमेरिकी प्रभुत्व में रहा. उस समय की सरकार अपने देशहित की कीमत पर या कुछ अन्य कारणों से पाकिस्तान को अधिक देकर अमेरिका को शांत रखना चाहती थी. इसी कारण विश्व बैंक की कथित मध्यस्थता में 1960 में पाकिस्तान के साथ अपने राष्ट्रीय हित की कीमत पर हमें यह अन्यायपूर्ण संधि करनी पड़ी. इसमें भारत को इन नदियों का तकरीबन 30% पानी ही मिल सका. इस शर्मनाक संधि के कारण अपने हिस्सा का करीब 1/3 पानी पंजाब, राजस्थान, हरियाणा की जरूरतों की कीमत पर हम पाकिस्तान को देने को बाध्य रहे हैं.

2. तिब्बत : कौटिल्य (चाणक्य) सिद्धांत के अनुसार दो बिजीगीषु (बड़े/शक्तिशाली) राज्यों के बीच सीमावर्ती राज्य (अंग्रेजी में इसे Buffer State कहा गया) दोनों बिजुगीषु राज्यों के हित में होता है. चीन ने भारत-चीन सीमा पर अवस्थित प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक रुप से परिपूर्ण सामरिक महत्व के बफर “सार्वभौम राज्य तिब्बत” पर सैनिक आक्रमण के द्वारा आधिपत्य स्थापित कर लिया.
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शीतयुध्द के इस काल में अमेरिकी विदेश मंत्री डलेस की नीति थी- ‘जो पूर्ण रूप से हमारे साथ नहीं है, वह अमेरिका का दुश्मन है.’ दो-ध्रुवीय विश्व में “गतिशील तटस्थता” भारत की जरूरत थी. इस कारण अमेरिका ने तिब्बत पर भारत के दृष्टिकोण से अपने को अलग रखा. इधर अंतर्राष्ट्रीयता में अंधी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी तिब्बत पर इस अन्यायपूर्ण चीनी कब्जे को “तिब्बत की मुक्ति” मानती थी.

उस समय हम तिब्बत पर चीनी आधिपत्य को रोक नहीं सकते थे. लेकिन, तिब्बत पर चीनी आधिपत्य की सरकारी स्वीकृति देने से हम बच सकते थे. लेकिन अदूरदर्शी भारतीय नेतृत्व ने विश्व के इतिहास में एक नया पृष्ठ जोड़ा. दो बड़े राज्यों भारत और चीन के बीच अवस्थित “सार्वभौम बफर राज्य तिब्बत” पर चीन के आधिपत्य को अपनी सांस्कृतिक और सामरिक हित के साथ ही सार्वभौम राज्य के सहअस्तित्व की जरूरत को बलि देकर तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ सिद्धांतों एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 का उलंघन करते हुए “सार्वभौम तिब्बत” पर चीनी आधिपत्य को आगे बढ़ कर स्वीकृति दे दी. देश और तिब्बत की जनता के साथ जवाहर लाल नेहरु सरकार का यह घृणित धोखा था.

इन दोनों ‘शर्मनाक बलिदानों’ के बावजूद पाकिस्तान और चीन पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि तोड़ो, तिब्बत पर चीनी अधिपत्य की मान्यता खत्म करोसिंधु जल संधि को कभी चैन से रहने नहीं दिया. इन पुराने अन्यायपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संधियों को तोड़ने की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति एवं इसकी अंतर्राष्ट्रीय कानून द्वारा वैधता के संदर्भ में अब भारत को पूर्ण अधिकार है कि वह-

1 पाकिस्तान के साथ ‘सिंधु सहित 6 नदियों के पानी का भारतीय हित के खिलाफ अन्यायपूर्ण बंटवारे की 1960 की संधि एवं
2 तिब्बत पर चीनी आधिपत्य की स्वीकृति की संधि को यथाशीघ्र तोड़े.

अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां भी इन दोनों संधियों को तोड़ने के लिए अब भारत के अनुकुल हो रही हैं. कथित आदर्शवाद एवं वोट बैंक राजनीति के दबाव से बाहर निकलकर इजरायल को हम विश्वसनीय दोस्त बनाने में कामयाब हुए हैं. पाकिस्तान स्वनिर्मित आतंकवाद के जाल में अपने आप फंस चुका है. चीन की सीमा पर अब शक्तिशाली विएतनाम, कोरिया और जापान हैं. कोरिया का संभावित एकीकरण और जापान को अपनी सेना रखने का अधिकार मिलने की स्थिति भारत के लिए अनुकुल होगी.

चीनी साम्राजयवाद का शिकार रहा तिब्बत और भारत

बीबीसी हिंदी और अन्य समाचार माध्यमों ने तिब्बत के साथ तथा भारत के सन्दर्भ में चीन की साम्राज्यवादी नीति और कुकृत्यों का उल्लेख किया है. ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच खिंची लकीर मैकमोहन लाइन को लेकर चीन कभी भी संतुष्ट नहीं था. ये सीमा विवाद ब्रिटिश इंडिया से भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी मिला. क्योंकि चीन लद्दाख से हुन्ज़ा घाटी तक की पट्टी को अपना प्रभाव क्षेत्र समझता था. लद्दाख में हाल के दिनों तक जबरन चीनी घुसपैठ की खबरें सुर्खियां बनती रहीं हैं.
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पहली बार सन 1953 में चीन की ओर से बार-बार हुन्ज़ा से मिलने वाली सीमा का उल्लंघन किया गया. इसलिए, पाकिस्तानी तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल अयूब खान ने चेतावनी दी थी कि अगर चीन की ओर से सीमा उल्लंघन जारी रहा तो इसका डटकर मुकाबला किया जाएगा. इसके बाद चीन ने पाकिस्तान से उलझना बंद कर दिया. लेकिन भारत के कमजोर नेतृत्व के कारण हमारा देश उसका शाफ्ट टारगेट बना रहा.

10 मार्च 1959 को तिब्बत में क्या हुआ था?

लेकिन चीन ने अक्टूबर 1950 से ही तिब्बत को अपने कब्जे में लेना शुरु कर दिया था, शुरूआत में तिब्बत सरकार झुक गई. चीन के साथ संधि हुई. उसमें तय हुआ कि बाहरी मामले चीन के और अंदरुनी मामले दलाई लामा के अधीन रहेंगे. लेकिन 1958 में चीन के सम्बंध तिब्बत से बहुत ही खराब हो गए. यहां तक कि चीन ने यह धमकी दे दी कि तिब्बत की राजधानी ल्हासा को वह बम से उड़ा देगा. तिब्बत में यह अफवाह फैल गई कि दलाई लामा को अगवा कर बीजींग ले जाया जाएगा. 10 मार्च 1959 को दलाई लामा के आवास के चारों ओर 30 हजार तिब्बतियों ने एक मानव दीवार बना दी. यह दीवार अभेद्द थी. छः दिन तक यह दीवार बनी रही. लोग भूखे प्यासे डटे रहे.

सातवें दिन यानी की 17 मार्च को चीन ने दलाई लामा के घर के सामने तोप व मशीन गन लगा दिए. उस तीस हजारी जनता पर इसका कोई फर्कन हीं पड़ा. 18 मार्च 1959 को चीनी सेना ने दलाई लामा के अंग रक्षकों को मौत के घाट उतार दिया. उन निहत्थे औरतों और बच्चों को मारना शुरू कर दिया. मारने से जनता तितर बितर हो गई. चीनी सेना दलाई लामा के घर में दाखिल हुई. वहां दलाई लामा नहीं थे. 23 वर्षीय दलाई लामा वहां से भाग गए थे. दलाई लामा को वहां की स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था. इसलिए वे भागने में कामयाब हो गए.

दलाई लामा को भारत में शरण

बाद के दिनों में जब चीन को पता चला कि भारत ने दलाई लामा को अपने यहां शरण दे रखी है तो वह आग बबूला हो गया. उसने भारत से सीमा विवाद का बहाना बनाया. चीन के साथ भारत की दोस्ती हमेशा कागजों में रही. अब यह कागजी दोस्ती भी दुश्मनी में बदल गई. चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया. 1962 की लड़ाई में भारत की बुरी तरह हार हुई. चीन ने हमारे एक बड़े भू भाग पर कब्जा कर लिया. चीन की साम्राज्यवाद नीतियों ने भारत को कभी भी अपना दोस्त नहीं माना. आज भी चीन भारत का दुश्मन है. आज भी वह सीमा विवाद सुलझाने में कोई रुचि नहीं ले रहा है.

तिब्बत पर डॉ. लोहिया का रहस्योद्घाटन!

यहां पत्रकार सुरेंद्र किशोर के एक आलेख का यह उद्धरण प्रासंगिक है. डॉ. राम मनोहर लोहिया ने सवाल उठाया था कि ‘दुनिया में कौन सी कौम है जो अपने सबसे बड़े देवी -देवताओं को परदेश में बसाया करती है?’ लोहिया ने कैलाश मान सरोवर का जिक्र करते हुए लोकसभा में कहा था कि हिंदुओं के सबसे बडे़ तीर्थों में एक स्थल तिब्बत में हैं. उन्होंने कहा था कि हिंदुस्तान-तिब्बत सीमा से तिब्बत में दो सौ मील अंदर का मनसर गांव चीनी आक्रमण होने तक हिंदुस्तान की सरकार को अपना राजस्व देता था.

याद रहे कि 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया था. डॉ. लोहिया ने जब यह सवाल उठाया तब तक केंद्र सरकार को इसकी कोई जानकारी तक नहीं थी. यह लोहिया की खोज थी.

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने डॉ. लोहिया से कहा था कि आप मेहरबानी करके वह सबूत हमारे हाथ में दे दो. तब लोहिया ने कहा कि आप खोज करो. सरकार ने खोज की और तब वह बात सही निकली. यानी कभी तिब्बत भारत का ही हिस्सा था.

-जयराम तिवारी
(सेवानिवृत प्राचार्य, रांची विश्वविद्यालय)

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