वक्फ बोर्ड

वक्फ बोर्ड संशोधन बिल पेश होगा संसद में, रुकेंगे कुकर्म

विचार विशेष
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*कल्याण कुमार सिन्हा-
वक्फ बोर्ड के असीमित अधिकार के साथ वक्फ कानून को खत्म करने अथवा उसमें बदलाव लाने की मांग पुरानी है. यह मांग कोई राजनीतिक या साम्प्रदायिक कारणों से नहीं, बल्कि देश भर में वक्फ  द्वारा किए जा रहे कुकर्मों के कारण उठ रही थी. बेनामी, सरकारी, सार्वजनिक एवं लोगों की संपत्ति और भूमि हड़पने, वक्फ कानून में मिले असीमित अधिकारों का दुरुपयोग करने, वक्फ के नाम पर अर्जित संपत्ति का बंदरबांट करने के साथ ही मुस्लिम समुदाय की बेवाओं की संपत्ति और जमीन हथियाने जैसे फल-फूल रहे कुकर्म इसका कारण रहे हैं.

ख़ुशी की बात है कि वक्फ बोर्ड संशोधन बिल कल गुरुवार, 8 अगस्त को ही मोदी सरकार लोकसभा में पेश करने वाली है. बिल सदन में सुबह 11 बजे अल्पसंख्यक मंत्री किरेन रिजिजू पेश करेंगे. एक तरफ सत्तारूढ़ एनडीए इस बिल को पास करवाने की कोशिश करेगी वहीं दूसरी ओर विपक्ष इसका पुरजोर विरोध करेगा.

केंद्र सरकार वक्फ बोर्ड अधिनियम संशोधन बिल 2024 के जरिए 44वां संशोधन करने जा रही है. सरकार ने कहा कि यह बिल लाने का मकसद वक्फ की संपत्तियों को सुचारू संचालन करना और उसकी देखरेख करना है. वक्फ कानून 1950 के सेक्शन 40 को हटाया जा रहा है. इसके तहत वक्फ को किसी भी संपत्ति को वक्फ की संपत्ति घोषित करने का अधिकार था.

इसमें संशोधनों के अंतर्गत वक्फ कानून 1995 का नाम बदलकर एकीकृत वक्फ प्रबंधन, सशक्तिकरण, दक्षता और विकास अधिनियम, 1995 किया जाएगा. केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्ड में मुस्लिम और गैर मुस्लिम का उचित प्रतिनिधित्व होगा. एक केंद्रीय पोर्टल और डेटाबेस के माध्यम से वक्फ के पंजीकरण के तरीकों को व्यवस्थित करना होगा.

इसके साथ ही दो सदस्यों के साथ ट्रिब्यूनल संरचना में भी सुधार होगा. ट्रिब्यूनल के आदेशों के खिलाफ 90 दिनों के अंदर कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का समय निर्धारित किया गया है. वक्फ की संपत्तियों के सर्वेक्षण के लिए के लिए सर्वे कमिश्नर का अधिकार जिलाधिकार को दिया गया है.

वक्फ बोर्ड संशोधन बिल आने की संभावना को देखते हुए विपक्षी दलों से लेकर मुस्लिम संगठनों तक से विरोध के सुर उठ रहे हैं. लेकिन, संतोष की बात है कि सरकार के इस कदम के विरोध के बीच ऑल इंडिया सज्जादानशीन काउंसिल ने इस बिल का स्वागत करने का ऐलान किया है. काउंसिल ने कहा है कि “यह काफी समय से लंबित था. सरकार जो बिल लाने जा रही है, उसके पीछे उसका तर्क वक्फ बोर्ड के सारे सिस्टम को पारदर्शी और जवाबदेह बनाना है. सरकार उनमें महिलाओं की भागीदारी भी तय करना चाहती है.”

आजादी के बाद कांग्रेस के लगभग सभी प्रधानमंत्रियों के शासनकाल में मुस्लिम समुदाय के कुछ प्रभावशाली तत्वों को खुश रखने के लिए तरह-तरह के झुनझुने दिए जाते रहे. इसी क्रम में अपना वोट बैंक सुरक्षित बनाने के लिए सरकारी स्तर पर वक्फ बोर्ड को ऐसे सारे कुकर्म करने की ताकत दी जाती रही. इससे हिन्दू और गैर मुस्लिम समुदाय तो वक्फ बोर्ड का निशाना बन ही रहे थे. बहुसंख्य निचले और गरीब तबके के मुस्लिम समुदाय भी त्रस्त हो रहे थे.

वर्तमान भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार अपने पिछले दो कार्यकाल इन मांगों के अनुरूप काम तो शुरू कर दिया था, लेकिन पूरा नहीं कर पाई थी. किन्तु अब वक्फ बोर्ड के विरुद्ध बलवती हो उठी नाराजगी की और अनदेखी संभव नहीं रह गया था.

अपने तीसरे कार्यकाल के तीसरे महीने के शुरू में ही मोदी सरकार ने वक्फ बोर्ड के असीमित अधिकारों पर अंकुश लगाने और वक्फ कानून में 44 संशोधनों वाले मसौदे को पिछले सप्ताह ही मंजूरी दे दी. साथ ही इसे संसद से पारित कराने के पूर्व इसकी प्रति सारे जनप्रतिनिधियों में वितरित भी कर दिया है. वक्फ बोर्ड को कांग्रेस की केंद्र की विभिन्न पूर्व सरकारों ने असंवैधानिक तरीके से जैसे पाला, गनीमत है कि बोर्ड और कानून को निरस्त नहीं किया जा रहा है.

सभी गैर मुस्लिमों और बहुसंख्य मुस्लिमों की मांग के अनुरूप सरकार के कदमों का विरोध शुरू हो गया है. विरोध करने वाले वही जाने-पहचाने असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुस्लिम नेता, कुछ मुस्लिम संगठन और नकली धर्मनिरपेक्ष और तथाकथित लिबरल तत्व हैं.

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में विपक्षी राजनीति हमेशा से सुधारों और विकास के नए कार्यक्रमों का विरोधी रही है. विपक्षी दल जनता को दिग्भ्रमित कर सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध उन्हें उकसाने, आंदोलन खड़े करवाने, अराजकता के हालात पैदा करने जैसे हथकंडों के सहारे सत्ता हासिल करने के मंसूबे को अपना राजनीतिक अधिकार दायित्व मानने लगा है.

देश में कोई पहल या नई नीति का निर्माण अथवा नया काम शुरू करना आसान नहीं रहने दिया गया है. राजीव गांधी ने जब अपने शासन काल में बैंकों, सार्वजनिक प्रतिष्ठानों और सरकारी प्रतिष्ठानों में कम्प्युटरीकरण को और कोयला खदानों और अन्य खनन उद्योगों में मशीनीकरण को बढ़ावा देना शुरू किया था, तब अपने को प्रगतिशील कहने वाली भारत की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने देश में तूफान मचाना शुरू कर दिया था.

हाल के वर्षों का इतिहास भी गवाह है, जब नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के विरोध में फिरकापरस्तों के पीछे सारे विपक्षी नेता खड़े हो गए थे. इसी तरह किसानों और कृषि की बेहतरी के लिए संसद से पारित तीन कृषि कानूनों के विरोध को इन्हीं विपक्षी दलों ने हवा देने का काम किया था. इस विरोध बड़े पैमाने पर वर्ष भर चलाने में मदद भी करते रहे. काले धन पर रोक लगाने और सेल कंपनियां बना कर अरबों रुपए की हेराफेरी रोकने के कदमों पर भी बवाल मचाने वाले ऐसे ही राजनेता रहे हैं.

तीन तलाक खत्म करने की पहल पर भी आसमान सिर पर उठाया जाना भी इन तत्वों की बदनीयती का उदाहरण है. इस पहल का विरोध यह मानते हुए किया जा रहा था कि यह प्रथा गलत तो है, लेकिन इसे खत्म करने का काम सुप्रीम कोर्ट या सरकार का नहीं है, या यह इस्लामी और शरिया कानून का मामला है. तीन तलाक की तरह जब भी समान नागरिक संहिता की चर्चा छिड़ती है, कई मुस्लिम नेता और तथाकथित छद्म (सूडो) सेक्युलर-लिबरल तत्व उसका आंख मूंदकर विरोध करना शुरू कर देते हैं, बिना यह जाने-समझे कि इस संहिता के क्या प्रावधान होंगे? और इनके समर्थन में तुरंत उठ खड़े होते हैं हमारे विपक्षी दिग्गज.  

बांग्लादेश के हालात और वहां हिंदुओं पर बड़े पैमाने पर हमलों को देखते हुए तो अब यह आवश्यक हो गया है कि नागरिकता कानून को और अधिक उदार बनाया जाए, ताकि 2014 के बाद भी भारत आए तीन पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को आसानी से शरण एवं नागरिकता दी जा सके. ऐसा करते हुए पीड़ित और आक्रांता में भेद किया ही जाना चाहिए.

किसी भी सरकार के फैसलों और उसकी नीतियों का विरोध या समर्थन उनके गुण-दोष के आधार पर होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य है कि अपने देश की राजनीति में ऐसा नहीं होता. विरोध के लिए विरोध हमारे सभी दलों की प्रिय नीति है. कई विपक्षी दल अपनी इसी प्रिय नीति का परिचय वक्फ अधिनियम में बदलाव पर देने के लिए उतावले हो रहे हैं.

सरकार ने यह सही कदम उठाया है कि वक्फ कानून में संशोधन और बोर्ड पर अंकुश लगाने के अपने बिल पर संसद में व्यापक बहस कराने का फैसला किया है. विपक्षी नेता फिर भी मुस्लिम समुदाय को भरमाने और उन पर अपना सिक्का जमाए रखने के लिए कुतर्कों का सहारा जरूर लेंगे. लेकिन व्यापक बहस का एक परिणाम होगा कि आम जनता और विशेष रूप से मुस्लिम समाज में भ्रांतियों के लिए कोई गुंजाइश कम जरूर हो जाएगी.

वक्फ अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता केवल इसलिए नहीं है, क्योंकि वक्फ बोर्डों को मनमाने अधिकार मिले हुए हैं. आवश्यकता इसलिए भी है ताकि वक्फ संपत्तियों का निर्धन मुस्लिम समाज की भलाई के लिए सदुपयोग हो और इन संपत्तियों का दुरुपयोग एवं उन पर अवैध कब्जे का सिलसिला थमे. कट्टरपंथी नेता कुछ भी कहें, खुद वक्फ बोर्ड के पदाधिकारी यह मानते हैं कि उनकी छवि जमीन हड़पने वालों की बन गई है.

इस छवि के लिए वक्फ बोर्डों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार है. वे किस मनमाने तरीके से काम करते हैं, इसका उदाहरण पिछले सप्ताह ही जबलपुर हाई कोर्ट के उस आदेश से मिला, जिसमें उसने शाहजहां की बहू के मकबरे समेत तीन अन्य मुगलकालीन संपत्तियों पर उसका दावा इसलिए खारिज कर दिया, क्योंकि ये संपत्तियां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में होनी चाहिए थीं.

वक्फ बोर्डों को कैसे मनमाने अधिकार हासिल हैं, इसका प्रमाण तमिलनाडु का वह गांव भी है, जिसके मंदिर की जमीन पर वक्फ बोर्ड ने अपना दावा ठोक दिया, जबकि यह मंदिर 1500 साल पुराना यानी इस्लाम के उदय के पहले का है. वक्फ बोर्ड की संपत्तियों पर आमतौर पर सियासी और मजहबी रसूख वाले नेता काबिज रहते हैं. वे उसकी संपत्तियों का दुरुपयोग ही नहीं करते, बल्कि उन पर कब्जे कराने के साथ उन्हें बेचते भी हैं.

प्रयागराज में वक्फ की 50 करोड़ से अधिक की जमीन पर माफिया अतीक अहमद का कब्जा था. 2023 में योगी सरकार ने उसे खाली कराया और अब वहां वक्फ बोर्ड की ओर से एक क्लीनिक का संचालन हो रहा है. कुछ वर्ष पहले कर्नाटक अल्पसंख्यक आयोग ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा था कि वक्फ बोर्ड के पदाधिकारियों, सरकारी अधिकारियों और कांग्रेस नेताओं की मिलीभगत से वक्फ की करोड़ों की संपत्ति बेच दी गई.

इस रिपोर्ट पर न तो कोई जांच हुई और न ही कार्रवाई. महाराष्ट्र में वक्फ बोर्ड के एक पदाधिकारी को इस आरोप में हटाया गया कि उसने वक्फ की संपत्तियां बिल्डरों को बेच दी थीं. देश भर के करीब 30 वक्फ बोर्डों के पास सेना और रेलवे के बाद सबसे अधिक संपत्तियां हैं, लेकिन किसी को और कम से कम गरीब मुसलमानों को नहीं पता कि उनसे उन्हें क्या लाभ मिल पा रहा है.

1853 में जब अंग्रेजों ने देश में पहली बार रेल चलाई थी तो उसका यह कहकर विरोध हुआ था कि लोहे पर लोहा चलाना अपशकुन को निमंत्रण देना है. देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल का विरोध भी ऐसे तत्व भी करते हैं. इनके लिए संविधान और देश के कानून की कोई अहमियत नहीं है. फिर भी इनका समर्थन करने, इन्हें उकसाने में विपक्षी नेता बढ़-चढ़ कर सुर मिलाते हैं. ऐसे कर्णधारों को सद्बुद्धि मिले, अपने छुद्र राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठ कर जनहित-देशहित में आगे बढ़ सकें.
-कल्याण कुमार सिन्हा.

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