बालासाहेब

बालासाहेब ने मिटाया संघ में जातिवाद का मिथ्या कलंक

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*विनोद देशमुख-

सभी हिंदू एक हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रारंभ से यही रुख था और आज सौ वर्ष बाद भी यही है. परंतु चूंकि श्री गुरुजी धार्मिक और कुछ हद तक परंपरावादी थे, इसलिए कभी-कभी विरोधी उन्हें भ्रमित करने का अवसर पा लेते थे और उन्हें हिंदू-समर्थक संघ को जातिवादी कहने का अवसर मिल जाता था. उनके समय में यह अनुभव किया जाता था कि ब्राह्मण समुदाय मुख्यतः संघ से श्रेष्ठ है. परंतु संघ की दृष्टि में संपूर्ण हिंदू समुदाय था. डॉ. हेडगेवार के नेतृत्व काल में महात्मा गांधी ने स्वयं वर्धा संघ शाखा में जाकर संघ के इस जातिविहीन ढांचे का अनुभव किया था और उसकी सराहना की थी. फिर भी संघ पर लगा जातिवाद का मिथ्या कलंक नहीं मिट पाया. वह कार्य श्री गुरुजी के उत्तराधिकारी बालासाहेब देवरस (मधुकर दत्तात्रेय देवरस जी) ने किया. 

बालासाहेब, जो पहले ही श्री गुरुजी द्वारा डॉ. हेडगेवार के अधीन प्रशिक्षित हो चुके थे, संघ के मूल जाति-विरोधी रुख से परिचित थे और उन्होंने उस पर स्पष्ट रुख अपनाया. पुणे में प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला में बालासाहेब ने जाति व्यवस्था की सार्वजनिक रूप से निंदा की और अंतरजातीय रोटी-बेटी लेन-देन की वकालत की. इस घोषणा के साथ ही, जाति-विरोधी संघर्ष का वह मंच, जिसकी भारत रत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपेक्षा की थी, संघ में औपचारिक रूप से खुल गया. 

बालासाहेब देवरस के समय में संघ में शामिल होने वाले गैर-ब्राह्मण स्वयंसेवकों और प्रचारकों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई. बालासाहेब ने सामाजिक समरसता का नारा देते हुए इसके लिए विशेष पहल की. हिंदू समाज में सभी जातियों और समुदायों की एकता का यह प्रयोग सफल रहा और इसके अच्छे परिणाम अब दिखाई देने लगे हैं. स्वयंसेवकों से लेकर अखिल भारतीय पदाधिकारियों तक, विभिन्न स्तरों पर अनेक जातियों के लोग संघ में बड़ी संख्या में दिखाई देने लगे हैं.

मूलतः, संघ में जाति देखी ही नहीं जाती, जाति का ज़िक्र तक नहीं होता. (महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने संघ की शाखा में आने के दौरान स्वयं इसका अनुभव किया था.) किसी को किसी से जाति के बारे में पूछना ही नहीं चाहिए, संघ में यह एक अलिखित नियम है और पिछले सौ वर्षों से सभी स्तरों पर इसका पालन होता आ रहा है. भारत में ऐसा दूसरा संस्थागत/संगठनात्मक उदाहरण शायद ही मिले। यही संघ की सबसे बड़ी सफलता है. लेकिन, संघ के अंध विरोधियों को यह दिखाई नहीं देता. बल्कि, वे इसे पचा ही नहीं पाते!

इस संबंध में बालासाहब देवरस ने सबसे मूल्यवान कार्य किया. उन्होंने सामाजिक समरसता बढ़ाने के लिए पदाधिकारियों, प्रचारकों और स्वयंसेवकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी. इतना ही नहीं, उत्तराधिकारी के चयन में भी उन्होंने स्वयं एक मिसाल कायम की. उन्होंने पूर्व परंपरा को तोड़ते हुए एक गैर-ब्राह्मण डॉ. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) को सरसंघचालक नियुक्त किया. ठाकुर समुदाय के रज्जू भैया ने भी संघ का कुशलतापूर्वक संचालन कर अपनी एकता सिद्ध की. बालासाहब ने सरकार्यवाहों को पदोन्नत कर सरसंघचालक नियुक्त करने की प्रथा को भी दरकिनार कर दिया और सरकार्यवाह हो. वे. शेषाद्रि के स्थान पर, रज्जू भैया, जो उनके सह सरकार्यवाह थे, को सीधे सरसंघचालक नियुक्त किया था. 

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-विनोद देशमुख